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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ३

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रथ मानों एक रिक्त घन था,
जल भी न था, न वह गर्जन था।
वह बिजली भी थी हाय! नहीं,
विधि-विधि पर कहीं उपाय नहीं।
जो थे समीर के जोड़ों के,--
उठते न पैर थे घोड़ों के!
थे राम बिना वे भी रोते,
पशु भी प्रेमानुरक्त होते।
जो भीषण रण में भी न हटे,
मानों अब उनके पैर कटे।
अति भार हुआ रीता रथ था,
गृह-पथ मानों अरण्य-पथ था!
अवसन्न सचिव का तन-मन था;
करता समीर भी सन सन था।
सिर पर अनन्त-सा आ टूटा,
कटि टूटी और भाग्य फूटा।
धरती मानों थी मरी पड़ी,
थी प्रकृति भीति से भरी पड़ी।
सम्मुख मानों मुख खोल बड़ा,
खाने को था दिग्दैत्य खड़ा!
था सोच यही मुख-सरसिज को,
किस भाँति दिखाऊँगा निज को?
इस लिए श्यामता लाता था--
उसमें निज मूर्त्ति छिपाता था।
मन विकल हुआ क्या करता था?
साँसें शरीर में भरता था।
सन्देश सुनाये बिना कहीं,
गिर जाय न हा! यह देह नहीं!
जब रजनी आकर प्राप्त हुई,
बाहर ही साँझ समाप्त हुई,
नीरव गति से, उदास उर में,
तब सचिव प्रविष्ट हुए पुर में।
थी पड़ी पुरी भी काली-सी,
(जगती थी जहाँ दिवाली-सी।)
खोले थी मानों केश पुरी,
रक्खे थी विधवा-वेश पुरी!
क्या घुसे सुमन्त्र रसातल में?
रुक उठी साँस भी पल पल में।
यह तमी हटेगी क्या न कभी,
पौ यहाँ फटेगी क्या न कभी?
सब चौक बन्द थे, पथ सूनें,
हो गई अमावस-सी पूनें।
रहती जो गीत-गुंजरित सी,
गृह-राजि आज भी स्तम्भित सी।
पुर-रक्षक नीरव फिरते थे,
आँसू अमात्य के गिरते थे।
"हो चुकी लूट घर की गहरी,
अब किसे रखाते हैं प्रहरी?"
उत्तर में ’नहीं’ सुनें न कहीं,
इस लिए "राम लौटे कि नहीं?"
यह पूँछ न सके सचिव-वर से;
पुरवासी मौन रहे डर से।
नीरवता ही अमात्य वर की,
थी शोक-सूचना उत्तर की।
कोई अनिष्ट कहते-कहते,
बहुधा मनुष्य चुप ही रहते।
रथ देख सभी ने शीश धुना,
ऊपर अमरों ने स्पष्ट सुना,--
’क्या फिरे हमारे आर्य नहीं?’
सुर बोले--’था सुर-कार्य वहीं।’
देवों के वाक्य सुधा-सींचे,
सुन पड़े न उसी समय नीचे।
वे कोलाहल में लीन हुए,
पुरवासी दुख से दीन हुए।
कर के सुमन्त्र ने सिर नीचा,
आँखों को एक बार मींचा।
जिस रथ पर से प्रसून झड़ते,
उस पर थे आज अश्रु पड़ते।

जब नृप समीप उपनीत हुए,
तब शोक भूल वे भीत हुए।
"यह पोत डूब ही जावेगा--
या कूल-किनारा पावेगा?"
गजराज पंक में धँसा हुआ,
छटपट करता था फँसा हुआ।
हथनियाँ पास चिल्लाती थीं,
वे विवश, विकल बिल्लाती थीं।
बोले नृप--"राम नहीं लौटे?"
गूँजा सब धाम--’नहीं लौटे।’
नृप ने सशंक जो कुछ पूछा,
बस उत्तर हुआ वही छूछा।
यद्यपि सुमन्त्र ने कुछ न कहा,
प्रतिनाद तदपि नीरव न रहा।
पर सचिव-मौन ही अधिक खला,
भर आया सूखा हुआ गला।
बोले फिर वे कि--"कहाँ छोड़ा,
ले चलो मुझे कि जहाँ छोड़ा।
मुझको भी वहीं छोड़ आओ,
वह रामचन्द्र-मुख दिखलाओ।"

टूटी महीप की हृत्तन्त्री;
बोले विषाद पूर्वक मन्त्री--
"हे आर्य, राम-मुख देखोगे,
दुख देख क्या न सुख देखोगे?
आवेंगे वे यश को लेकर,
सुख पावेंगे तुमको देकर।