भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ७

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

है महायात्रा यही, इस हेतु,
फहरने दो आज सौ सौ केतु!
घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर,
सूचना हो जाए चारों ओर--
सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति,
और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति!
अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व,
आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व!
सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज;
बस, यही अन्तिम विदा है आज।
सूत, मागध, वन्दि आदि अभीत,
गा उठें जीवन-विजय के गीत--
तुच्छ कर नृप मृत्यु-पक्ष समक्ष,
पा गये हैं आज अपना लक्ष।

राजगृह की वह्नि बाहर जोड़,
कर उठे द्विज होम--आहुति छोड़।
कुल-पुरोहित और कुल-आचार्य,
भरत युत करने लगे सब कार्य।
शव बना था शिव-समाधि-समान,
था शिवालय-तुल्य शिविका यान।
और जिनसे था वहन-सम्बन्ध,
थे भरत के भव्य-भद्र-स्कन्ध।
बज रहे थे झाँझ, झालर, शंख,
पा गया जयघोष अगणित पंख!
भाव-गद्गद हो रहे थे लोग,
गा रहे थे, रो रहे थे लोग।
बरसता था नेत्र-नीर नितान्त,
मार्ग-रज-कण थे प्रथम ही शान्त।
पाँवड़ों पर, बीच में शव-यान,
उभय ओर मनुष्य-पंक्ति महान।
आज पैदल थे सभी सत्पात्र,
वाहनों पर नृप-समादर मात्र।
शेष-दर्शन कर सभक्ति, सयत्न,
जन लुटाते थे वसन, धन, रत्न।
आ गया सब संघ सरयू-तीर,
करुण-गद्गद था सहज ही नीर।
आप सरिता वीचि-वेणी खोल
कर रही थी कल-विलाप विलोल!
अगरु-चन्दन की चिता थी सेज,
राजशव था सुप्त, संयत तेज।
सरस कर भूतल, बरस एकान्त,
क्षितिज पर मानों शरद-घन शान्त!
फिर प्रदक्षिण, प्रणति, जयजयकार,
सामगान-समेत शुचि-संस्कार।
बरसता था घृत तथा कर्पूर,
सूर्य पर था एक लघु घन दूर।
जाग कर ज्वाला उठी तत्काल,
विम्ब पानी में पड़ा सुविशाल।
फिर प्रदक्षिण कर तथा कर जोड़
रो उठे यों भरत धीरज छोड़--
"तात! यह क्या देखता हूँ आज?
जा रहे हो तुम कहाँ नरराज!
देव, ठहरो, हो न अन्तर्धान,
चाहिए मुझको न वे वरदान।
इस अधम की बाट तो कुछ देर
देखते तुम काल-कारण हेर।
वन गये हैं आर्य, तुम परलोक,
कौन समझे आज मेरा शोक?
स्वर्ग क्या, अपवर्ग पाओ तात,
पर बता जाओ मुझे यह बात--
राज्य-संग तुम्हें कहाँ से हाय!
दे सकूँगा आर्य को अनुपाय?
आज तुम नरराज, प्रश्नातीत,
ये प्रजाजन ही कहें, नयनीत--
धन किसी का जो हरे क्रम-भोग्य
दण्ड क्या उसके लिये है योग्य?
आह! मेरी जय न बोलो हार,
इस चिता ही में बहुत अंगार!
था तुम्हें अभिषेक जिनका मान्य,
हैं कहाँ वे धीर-वीर-वदान्य?
वन चलो सब पंच मेरे साथ,
हैं वहीं सबके प्रकृत नरनाथ।
राज्य पालें राम जनकप्राय,
राम का प्रतिनिधि भरत वन जाय।
निज प्रजा-परिवार-पालन-भार
यदि न आर्य करें स्वयं स्वीकार
तो चुनों तुम अन्य निज नरपाल,
जो किसी माँ का जना हो लाल।
व्यर्थ हो यदि भरत का उद्योग,
तो करें इतनी कृपा सब लोग--
इस, पिता ही की चिता के पास,
मुझ अगति को भी मिले चिरवास!"

साथ ही आनन्द और विषाद
’जय भरत’, ’जय राम’ जय जय नाद!
लोटते थे पर भरत गति-हीन
पितृ-चिता के पादतल में लीन।
दे रहे थे धैर्य लोग सराह,
विकल थे सब किन्तु आप कराह।
"भरत!" बोले गुरु-"भरत, हो शान्त,
जनकवर के जातवर, कुलकान्त!
कर चुके हो मृतजनक-संस्कार,
हत-जननियों का करो उपचार।
भेज यों पितृवन उन्हें सस्नेह,
पुत्र, इनको ले चलो अब गेह।"

बोले फिर मुनि यों चिता की ओर हाथ कर
"देखो सब लोग, अहा! क्या ही आधिपत्य है!
त्याग दिया आप अज-नन्दन ने एक साथ,
पुत्र-हेतु प्राण, सत्य-कारण अपत्य है!
पा लिया है सत्य-शिव-सुन्दर-सा पूर्ण लक्ष
इष्ट हम सबको इसी का आनुगत्य है!
सत्य है स्वयं ही शिव, राम सत्य-सुन्दर हैं,
सत्य काम सत्य और राम नाम सत्य है!"

कण्ठ कण्ठ गा उठा,
शून्य शून्य छा उठा--
सत्य काम सत्य है,
राम नाम सत्य है!