साक्षात्कार / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी
उसे जगाया गया था
कच्ची नींद से
इस एकाकी यात्रा के लिए
आखिर उसके निर्निमेष पलकों में
यही तो समाया था
अनेकानेक वर्षों से
अपना समस्त चेतन,शौर्य
और निश्चय
उस क्षण में उँडेलकर
वह बढ़ने लगा
कान नहीं थे उसके पास
सवाल सुनने को
और कदम अनुमति नहीं देते थे
थम जाने को
वह परिधि के दायरे से बाहर निकल
चूस लेना चाहता था नियति का लहू
शायद वह अधनींदा था
या फिर वह कौन अदृश्य शक्ति थी
जो उसे खींचे जा रही थी
एक प्रकाश की ओर
एक दिन
उसके विचरण का आकाश सिमट गया
जल सूख गया
और राहें ख़त्म हुई
पर ये क्या?
जो दिख रहा था
वह न था
जो उसकी उनींदी आँखों में व्याप्त था
और जिसके लिए वह बढ़ता चला आया था
अकेला
स्वयं की पग-ध्वनि सुनता
..वह क्या था
जो आज उसे बिना कामना के ही मिला था
वह मृत्यु नहीं थी
न ही आपदा थी
उस दिन
वह किशोरवय मन
पहली बार खड़ा था
अथाह शून्य के समक्ष
क्षुद्र,
असहाय
और अनिश्चयग्रस्त