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साक्षात् मैं हूँ / मोहन सपरा
Kavita Kosh से
1.
साक्षात् मैं हूँ
देखता हूँ
सड़कों, गलियों, चौराहों में पड़ी
रक्तसनी कोमल-कोमल
गुलाब की पँखुड़ियाँ ।
2.
साक्षात् मैं हूँ
देखता हूँ
वर्षा के गँदले जल में
फुदकते, नहाते और मंगल मनाते
चर्र-चूँ उच्चारते
चिड़ियों का हजूम
आदमी और आदमी में
बढ़ रही दूरी से
एकदम बेख़बर ।
3.
साक्षात् मैं हूँ
देखता हूँ
अपने ही नगर में
चेहरों से शक्लों को भिन्नतर होते
प्रकाश को अंधेरे में डूबते ।
4.
साक्षात् मैं हूँ
देखता हूँ
आकाश में धुएँ से बनते
अनगिनत चेहरे
भयाक्रान्त
गाथाओं के सूत्राधार ।
5.
साक्षात मैं हूँ
देखता हूँ
रोज़-रोज़
दिन और रात का युद्ध
बिना किसी शोर
फिर-फिर होती भोर ।