साक्षी और सिंधु हो जाना / सरस्वती रमेश
मेरे देश में
यूँ ही नहीं हो जाता
साक्षी और सिंधु हो जाना
देश के लिए पदक लाना
खेल में नाम कमाना।
जहाँ अमूमन दस साल से ही
शुरू हो जाती है
लड़कियों की
चूल्हे बर्तन की ट्रेनिंग
तहज़ीब की तालीम
लड़की होने की चेतावनी
और किशोर होने तक
ओढ़ा दिया जाता है
स्तनों पर ओढ़नी
खास हिदायत के साथ
सरकने न पाए कभी
दिख न जाये कभी
वैसे ही छिपा के रखना
जैसे कोई पाप छिपाता है
जैसे कोई खजाना दबाता है ।
बहुओं को स्तन के साथ
मुँह छिपाने का भी है
एक खास रिवाज
और मुँह दिखाने वाली बहू
को मिलता है तमगा
बेशर्म, बेहया होने का ।
मेरे देश में
मुँह छिपाकर किया जाता है
बड़ों का आदर
बुजुर्गों का सम्मान।
यूँ ही नहीं हो जाता
मेरे देश में
साक्षी और सिंधु हो जाना
जहाँ औरत में मर्दों वाली बात को
तिरस्कार से देखते हैं लोग
उसके रंग, सौंदर्य, उभारों
सुकोमल और दागरहित अंगों को
दी जाती है अहमियत
की जाती है अपेक्षा
लड़की से लड़की वाले गुण की
शर्म, हया, संयम, सहनशीलता की
पायल, बिछुवों और चूड़ियों की।
यूँ ही नहीं हो जाता
मेरे देश में
साक्षी और सिंधु हो जाना
जहाँ बाप बेटी से बनाकर रखता है
धरती और आकाश सी दूरी
जहां बेटी की हर ख्वाहिश रह जाती है अधूरी
माँ को नहीं मिलती फुरसत
चूल्हे और घर से
परम्पराओं, प्रथाओं, परिवार
और समाज के भार से
नहीं बोलती वह परिवर्तन की बात
नहीं दिखाती बेटी को
आगे बढ़ाने का साहस
और जिस भट्टी में खुद जलती है
जीवन भर
उसी में बेटी को भी झोंक देती है ।
सिंधु तुम जीती हो
ओकुहारा से नहीं
बेटी के बेपरवाह बाप से
स्तन छिपाने के श्राप से
मुँह ढंकने की बाध्यता से
आभूषणों की दासता से
शर्म हया के ढोंग से
लड़की बनने के रोग से।