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सागर-तट की सीपियाँ / अज्ञेय

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सीपियाँ
ये शुभ्र-नीलम : दर्द की आँखें फटी-सी
जो कभी अब नहीं मोती दे सकेंगी।

यह गन्ध-दूषित : मुख-विवर जो किरकिराते रेत-कन से
अचकचा कर अधखुला ही रह गया है।

ये बन्द, बाहर खुरदरी, छेदों-भरी :
हाय रे, अपनी घुटन का ले सहारा मुक्त होना चाहना
नि:सीम सागर से-
उसी के उच्छिष्ट का!

ये टूटी हुई रंगीन :
इन्द्र-धनु रौंदे हुए ये-
रेत से मिस चले से भी स्निग्ध, रंगारंग-
जैसे प्यार।

और यह, जो-
चलो, यह अच्छा हुआ जो लह उस को कोख में लेती गयी-
न जाने क्यों मुझे उस के कँटीले रूप से संकोच होता था।

देहरादून, मई, 1956