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सागर-तट है / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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सागर-तट है
चट्टानें हैं
उनको सहलाती लहरें हैं

आसमान में
सूरज से संवाद कर रहे जलपाखी हैं
हिरदय में जो नेह बसा है
सच में, वे उसके साखी हैं

दूर तिर रहीं
नावें हैं कुछ
उधर पोत भी कुछ ठहरे हैं

उस कोने में
धूप-सेंकती पाँतें ताड़-खजूरों की हैं
वहीं कहीं पर घनी बस्तियाँ
कारीगरों-मजूरों की हैं

विश्वहाट के
सौदागर के
उनकी साँसों पर पहरे हैं

कल बिखरी थी राख हवा में
आज लहर ने उसको धोया
लहरों के उस पार द्वीप पर
'जनगणमन' का देवा सोया

ग़ज़ल धूप की
कही सुबह ने
उसकी ग़लत-सलत बहरें हैं