सागर-पुत्र / माया मृग
उफनते सागर की
किसी छोटी सी लहर से
जन्मे थे तुम।
सागर ने अपनी सारी नमी
सारा प्रेम
आकण्ठ भर दिया तुम में।
उछाल लेती ‘कश्ती’ की तरह
ज्वारों पर
अठखेलियां करते तुम
जवान हुए।
सागर की हलचल में डोलती
सीपियों से छिटके
उजले मोतियों की चमक
तुम्हारे चेहरे में
तुम्हारी आँखों में झांकती रही।
सब समझे कि
शायद तुम
दूर रेत पर पटक गए हो
किसी शंख/घोंघे के से।
लहर का तत्व,
सागर की आर्द्रता
तुम्हारे भीतर से सुख गई
और तुम
किसी किनारे खेलते
बालक के से
मग्न हो मस्त हो
इस दुनिया में।
पर आज
तुमने अपने भीतर की
सारी तड़प-सारी तरंगों को समेट
उछाल ली तो
सागर उमड़ पड़ा,
लहर का ममत्व
छलकने लगा
तुम्हारा हर अंश
सागर के समांश हो गया।
ममता के उफान में
सिंधु उफना, गरजा
और फिर तुमसे
लिपटा, आलिंगनबद्ध हो
चुपचाप
यूं बहने लगा
जैसे कुछ हुआ ही न हो
दूर तक
बहता रहा-बहता रहा।