सागर-स्नान / जतरा चारू धाम / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
चरम चरण हम क्षीर दुग्ध दधि उपमित सिन्धुक बिन्दु
लहरि लैत उबडुब चु भकब उत चमकत पूर्णिम इन्दु।।56।।
वंग कलिंग क तट आन्ध्रक पुनि तमिल केरलक कूल
सह्य मलय पूर्वापर गिरि तट कच्छ सिन्ध उपकूल।।57।।
लहरि-लहरि नीलाभ गगनसँ बतियाइछ किछु आन
उभय अनन्वय, उपमेयोपम सागर गगन समान।।58।।
दूर-दूर धरि शून्य - न्यून नहि सागर जल विस्तार
बुझि पड़इत छथि एक रूप प्रभु निराकार साकार।।59।।
अति उतुंग तरंग शिखर पुनि गर्त-विवर्त घुरैछ
जीवन जनु उत्थान-पतन बिच अह-निस चक्र चलैछ।।60।।
अति गंभीर, थाह नहि निस्तल परस न भूतल अत
लवणाकर रक्षाकर निन्दा - बन्दा परे दुरंत।।61।।
मीन पीठ कत मगर मच्छ-कच्छप नहि अकछय जान
लघु विशाल जलपोत, गगन जनु उड़य विहग अनुमान।।62।।
उदर समेटि रत्न रत्नाकर विभु वैभव भंडार
आँक-माप वा शब्द तर्कसँ स्वयं परात्पर पार।।63।।
दक्षिण ओर-छोर पर दुहु दिस चचलता गाम्भीर्य
जनि संगत प्रसादमे उद्धत ओज, शान्ति माधुर्य।।64।।
अतलान्तक गर्वी अर्वी पश्चिम दिश सिन्ध समीप
पूर्व हिन्द सागर प्रशान्त अंचल कुमारिका द्वीप।।65।।
जतय गभीर विवेक कलित उच्छल आनन्छ उदार
उमा-महेशक मिलन बिन्दु सर भारत दक्षिण द्वार।।66।।
पच्छिम कच्छ स्वच्छ जल विंदित पुरी द्वारका धाम
द्वार पश्चिमी सजल सुरक्षित सिंचित रस बसु याम।।67।।
आ-समुद्र धरती परती नहि पड़ओ, सजल परिवेश
सुजला सुफला शस्य श्यामला भारत भूमि अशेष।।68।।