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सागर तुम्हीं बताओ / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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क्यों लौटा देते हो अस्वीकार्य
गर्भ में तो रखते हो रत्न
ओ रत्नाकार
क्या लौटा दूँ सब उदासियाँ?
अकेलापन बना लूँ जिंदगी तुम्हारी तरह?
तट की तरफ आओ
लौट जाओ
इस बार-बार के मिलने से
क्या पाते हो?
बस छूकर ही क्या तट को
अपना दिल बहलाते हो?
लहर-लहर ये उदासी
लहर-लहर ये अकेलापन
क्या कभी ऊब नही जाते
कोई तो ऐसा क्षण आता होगा
जब असहनीय लगता होगा
ये अकेलापन
तक क्या करते हो?
ये मुझको भी बतलाना
जी पाऊँ कुछ क्षण मैं भी
बस ऐसा कुछ समझाना
बस ऐसा कुछ समझाना।