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सागर मुद्रा - 12 / अज्ञेय

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 लहर पर लहर पर लहर पर लहर :
सागर, क्या तुम जानते हो कि तुम
क्या कहना चहाते हो?
टकराहट, टकराहट, टकराहट :

पर तुम
तुम से नहीं टकराते;
कुछ ही तुम से टकराता है
और टूट जाता है जिसे तुम ने नहीं
तोड़ा।

सागर
पर पक्षी ऊपर ही ऊपर उड़ जाते हैं,
सागर

पर मछलियाँ नीचे ही नीचे तैरती हैं,
नावें, जहाज़
पर वे सतह को ही चीरते हुए चले जाते हैं-
वह भी घाट से घाट तक।

सागर
देश और देश और देश, लहराता देश;
काल और काल और काल, उमड़ता काल
कहाँ है तुम्हारी पहचान, सागर, कहाँ?

जहाँ धरा और आकाश मिलते हैं
जहाँ देश और काल
जहाँ सागर तल की मछली छटपटा कर उछल कर
वायु माँगती है

जहाँ आकाश का पक्षी सनसनाता गिर कर
नीर को चीरता है
जहाँ नौका पतवार खो कर पलट कर तल की ओर
डूबने लगती है,

वहाँ तब, देश और काल और अस्ति के उस
त्रितय सन्निपात की धार पर
तुम्हारी पहचान कौंधती है
और लय हो जाती है

कि तुम प्राण हो
कि तुम अन्न हो
कि तुम मृत्यु हो
कि तुम होते हो तो खो जाते हो, क्यों कि हम खोते हैं तो होते हैं।
लहर पर लहर पर लहर पर लहर :

सागर, तुम कुछ कहना नहीं चाहते
तुम होना चाहते हो...
हर लहर
टकरायी और टूट गयी
लहर पर लहर पर लहर-

अन्त नहीं, अन्त नहीं, अन्त नहीं...
चट्टान
सहती रही, रहती रही
फिर ढही तो

निःशेष-निःशेष-निःशेष...
लहर पर लहर पर लहर...
लहर पर लहर पर लहर,
कहाँ है वह संगीत

जिस के लिए प्रजापति की वीणा काँपी
वह अमृत
जिस के लिए सुरों-असुरों ने तुझे मथा?
चुक गयी क्या

पुराण की रूप-कथा :
तू क्या सदा से केवल भाप से जमता हुआ जल का कोष रहा,
तू क्या अग्नि की, रत्नों की, सुखों की,
प्रकाश के रहस्यों की खनि, देवत्व की योनि,

कभी न था, न था?
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...
रात होगी
जब तूफ़ान तुझे मथेगा

जब ऊपर और नीचे
ठोस और तरल और वायव
आग और पानी
बनने और मिटने के भेद लय हो जाएँगे :

तो क्या हुआ? वही तो अस्ति है!
तूफ़ान ने मुझे भी मथा है और वह लय
मैं ने भी पहचानी है।
छोटी ही है, पर, सागर,

मेरी भी एक कहानी है...
सागर को प्रेम करना
मरण की प्रच्छन्न कामना है!
तो क्या?

मरण अनिवार्य है :
प्रेम
स्वच्छन्द वरण है :
प्रच्छन्न ही सही, सागर, मुझे कोई लज्जा नहीं-

न अपने रहस्य की न अपनी स्वच्छन्दता की :
आ तू, दोनों का साझा कर :
लहर पर लहर पर लहर पर लहर...

फरवरी, 1957