सागर मुद्रा - 6 / अज्ञेय
सागर के किनारे
हम सीपियाँ-पत्थर बटोरते रहे,
सागर उन्हें बार-बार
लहर से डुलाता रहा, धोता रहा।
फिर एक बड़ी तरंग आयी
सीपियाँ कुछ तोड़ गयी,
कुछ रेत में दबा गयी,
पत्थर पछाड़ के साथ बह गये।
हम अपने गीले पहुँचे निचोड़ते रह गये,
मन रोता रहा।
फिर, देर के बाद हम ने कहा : पर रोना क्यों?
हम ने क्या सागर को इतना कुछ नहीं दिया?
भोर, साँझ, सूरज-चाँद के उदय-अस्त,
शुक्र तारे की थिर और स्वाती की कँपती जगमगाहट,
दूर की बिजली की चदरीली चाँदनी,
उमस, उदासियाँ, धुन्ध,
लहरों में से सनसनाती जाती आँधी...
काजल-पुती रात में नाव के साथ-साथ
सारे संसार की डगमगाहट :
यह सब क्या हम ने नहीं दिया?
लम्बी यात्रा में
गाँव-घर की यादें,
सरसों का फूलना,
हिरनों की कूद, छिन चपल छिन अधर में टँकी-सी,
चीलों की उड़ान, चिरौटों, कौओं की ढिठाइयाँ,
सारसों की ध्यान-मुद्रा, बदलाये ताल के सीसे पर अँकी-सी,
वन-तुलसी की तीखी गन्ध,
ताजे लीपे आँगनों में गोयठों पर
देर तक गरमाये गये दूध की धुईंली बास,
जेठ की गोधूली की घुटन में कोयल की कूक,
मेड़ों पर चली जाती छायाएँ
खेतों से लौटती भटकती हुई तानें
गोचर में खंजनों की दौड़,
पीपल-तले छोटे दिवले की
मनौती-सी ही डरी-सहमी लौ-
ये सब भी क्या हम ने नहीं दीं?
जो भी पाया, दिया :
देखा, दिया :
आशाएँ, अहंकार, विनतियाँ, बड़बोलियाँ,
ईर्ष्याएँ, प्यार दर्द, भूलें, अकुलाहटें,
सभी तो दिये :
जो भोगा, दिया; जो नहीं भोगा, वह भी दिया;
जो सँजोया, दिया,
जो खोया, दिया।
इतना ही तो बाक़ी था कि वह सकें :
जो बताया वह भी दिया?
कि अपने को देख सकें
अपने से अलग हो कर
अपनी इयत्ता माप सकें
...और सह सकें?
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969