भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सागर / राजीव रंजन प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखा है क्या सागर तुमने
फ़िर ठहरो आईना देखो
पलकों के भीतर अपने ही
सीपी बन जाओ चाहो तो
या अनंत गहरे में डूबो..

१८.११.१९९६