सागर सिद्दीकी का जन्म अम्बाला में एक मज़दूर परिवार में हुआ था और जन्म के समय उन्हें मुहम्मद अख़्तर नाम दिया गया था। उनके पिता के एक मित्र थे हबीब हसन, जो शायर थे।। उन्होंने ही सागर सिद्द्की को अक्षर ज्ञान करवाया, उर्दू सिखाई और शायरी करना सिखाया। वैसे तो सागर सिद्दीकी की मातृभाषा पंजाबी थी, लेकिन आठ साल की उम्र में ही वे उर्दू में सिद्धहस्त हो गए थे और मज़दूरों के ख़त और अर्ज़ियाँ लिखने लगे थे।
13 साल की उम्र में वे उर्दू में शायरी करने लगे और उन्होंने शायर के रूप में अपने लिए नासिर हिजाज़ी नाम चुना। लगभग तीन साल तक उन्होंने मुशायरों में इसी नाम से शिरकत की। 16 साल की उम्र में वे सहारनपुर, लुधियाना, अमृतसर और जालन्धर आदि शहरों में होने वाले मुशायरों में बुलाए जाने लगे। वे उर्दू और पंजाबी में लिखने लगे थे। उन्हीं दिनों वे पिता का घर छोड़ कर अपने गुरु के साथ अमृतसर चले गए और वहीं रहने लगे। अमृतसर में उन्होंने अपने लिए नया नाम चुना। अब वे सागर सिद्दीकी बन गए थे।
1947 में देश विभाजन के वक़्त उनकी उम्र 19 साल थी। वे हिन्दुस्तान छोड़ कर पाकिस्तान चले गए और लाहौर में सड़कों पर ज़िन्दगी गुज़ारने लगे। उनकी हालत इतनी ख़स्ता थी कि वे दो-दो रुपए में अपनी ग़ज़लें लोगों को बेच दिया करते थे। वे लोग आगे उन ग़ज़लों को अपने नाम से छपवा लिया करते थे।
उन दिनों ही मुम्बई से पाकिस्तान गए फ़िल्म जगत के कुछ लोगों ने मिलकर फ़िल्म ’लाल मिर्ज़ा’’ का निर्माण किया। फ़िल्म के निर्देशन का भार संगीतकार मास्टर आशिक हुसैन ने अपने ऊपर ले लिया। वे सागर सिद्दीकी को जानते थे। उन्होंने सागर सिद्दीकी से फ़िल्म के लिए गाना लिखने की फ़रमाइश की और सागर सिद्दीकी ने 20 साल की उम्र में ’दमादम मस्त कलन्दर’ लिखकर मास्टर आशिक़ हुसैन को दे दिया। गीत के बदले उन्हें बीस रुपए दिए गए थे। फिर आशिक़ हुसैन ने इस गीत की धुन बनाई और गायिका नूरजहाँ से यह गीत गवाया। इसी गीत को गाने के बाद नूरजहाँ बेहद लोकप्रिय गायिका बन गईं और यहीं से उनका फ़िल्मों के लिए गायन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ। बाद में धीरे-धीरे यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि सारी दुनिया में छा गया। दुनिया भर के तीन सौ से अधिक गायकों ने यह गीत गाया है।
लेकिन गीत के रचियता और संगीतकार ग़रीब ही रह गए। सागर सिद्दीकी भिखारियों के साथ ही सड़क पर रह गए। उन्हें भांग, चरस और गांजे जैसे नशों की आदत पड़ गई थी और वे भीख मांग कर गुज़ारा करते थे और सड़क पर ही रहा करते थे। घोर सर्दियों की रात में वे कूड़ा जला कर अपनी ठण्ड भगाया करते थे। 19 जुलाई 1974 को सुबह-सवेरे लाहौर में एक दुकान के सामने सड़क पर उनका शव पाया गया था।
उधर मास्टर आशिक़ हुसैन नई इक्कीसवीं सदी में भी ज़िन्दा थे। संगीतकार के रूप में उनकी कोई पूछ नहीं थी। अपने निधन से एक दिन पहले तक वे सड़क पर पकौड़े बनाकर बेचने का ठेला लगाते थे और उसी से अपनी जीविका चलाते थे।