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साठ बरस का आदमी / कुमार कृष्ण

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हम साठ बरस के आदमी से
उसकी सेहत के बारे में पूछते हैं
हम पूछते हैं उसके चश्मे के नम्बर के बारे में
कितनी अजीब बात है हम नहीं पूछते-
कितनी बार मिला है नींद में
तख्ती-सलेट वाला बस्ता
दादा की, पापा की, पीठ वाली सवारी
हम नहीं पूछते-
लालटेन की लौ में लिखी चिट्ठियों के पत्ते
कितनी अजीब बात है-
वह आदमी हमें दिखाना चाहता है
पिकनिक की तस्वीरें
गुनगुनाना चाहता है झूले का गीत
सुनाना चाहता है- नौका विहार
हम जल्दी से पी लेना चाहते हैं
उसकी गर्म-गर्म चाय
साठ बरस का आदमी लौट जाना चाहता है-
एक छत के पास
वह छुपा लेना चाहता है अनगिनत रोटियाँ
किसी मजबूत दरवाजे के अंदर
वह लौट जाना चाहता है उस आग के पास
जो सिर्फ उसकी अपनी हो
वह लौट जाना चाहता है ठहाकों के पास
हम नहीं पूछते उस आदमी से
उन छोटे-छोटे रिश्तों के बारे में
जिनको उठाकर बिता दिए उसने
पहाड़ जैसे साठ बरस
हम नहीं महसूस करते उसके हाथों की गरमाहट
नहीं देखते उसकी आँखों में चमकनेवाला आसमान
हम शायद कभी नहीं सोचते इसके बारे में-
साठ बरस का आदमी सुबह-शाम
सैर को जाते समय
क्यों रखता है अपने पास लकड़ी की लाठी
साठ बरस का आदमी-
आदमी नहीं सिर्फ एक अँगुली होता है,
जिसे थामते हैं सिर्फ बच्चे
जब तमाम लोग सो रहे होते हैं अपने घरों में चुपचाप

साठ बरस का आदमी
घुप्प अँधेरे में घूम आता है-
कई गाँव और शहर
साठ बरस का आदमी-
अपने हाथों की लकीरों में
मेहँदी की खुशबू ढूँढ़ता है।