साड़ी के कोर से आँसू पोछने पर / मनीष यादव
साड़ी के कोर से आँसू पोछने पर 
बस धैर्य ही तो ठहरता है एकांत में 
पीड़ा तो किसी चुंबक की भाँति 
धँसती ही चली जाती है मन के भीतर 
घर के पास लगे गुलाब़ के पौधे 
और माता रानी के मंदिर के पास लगे ओरहुल के पौधे के बीच 
बस चार घर नहीं,
बल्कि हमारे “ब्याह” तक का अंतर होता.  
अपने प्रेम को छोड़ दिये जाने के पश्चात 
प्रेमी के साथ-साथ 
घर और शहर भी तो छोड़ ही देना पड़ता है
हमारे सारे प्रेम पत्र और गुलाब  
नाली में डाल दिये जाते हैं
जिसे काछ कर निकालने से मन का मैल थोड़े ना निकलता है!  
पिता के स्वाभिमान की कमाई 
प्रेमी के साथ-साथ पिता से भी दूर होकर चुकानी पड़ती है।
दफ़्तर और समय तो उनका वही होगा!
पर कोहनी को खिड़की से अड़काये
रास्ते को निरंतर निहारने से पिता अब नहीं आते
गाँव, फोन से बात करने पर 
छोटा भाई बोल पड़ता है –
केवल घर ही तो बदला है दीदी 
अबकी मास मिलने ही चली आओ..
घर से पिता के छुपाए बोझ को 
अब कौन बतलाये?
कि ससुराल वालों ने तो कह दिया है 
दहेज़ पूरी न मिलने तक बनी रहो तुम 
खूँट से बँधी बिन पगहे की औरत!  
वो कहना चाहती है –
दाल में छौंक लगाते हुये सपनों के बुनने की प्रतिभा 
बहुत कीमती है.
सुनो लड़कियों 
इंतजार करो इस बार नदी के पास आने का 
अबकी तुम बन जाना थोड़ी स्वार्थी और लड़ जाना अपने प्रेम के ख़ातिर 
तभी मैं अंतिम छलाँग लगा दूँगी 
अपने प्रेमी के हाथ पकड़े 
और तैर जाऊँगी प्रेम की अंतिम यात्रा में!
अबकी जनम नही बनूंगी कोई कवि
जहाँ मेरा विवाह और स्त्री विमर्श सिर्फ कागज़ों तक सीमित हो।
	
	