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सातम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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कहलनि: ‘‘ऋषिवर! अछि स्तब्ध पवन
अछि विन्ध्याचल बाधित रवि-पथ
दक्षिण भारत
होयत निर्जन

किछ अद्भुत भौगोलिक कारण
विन्ध्याचलके वार्धक्य देल
कयने अछि
अशम क्रोध धारण

रविके चाकर अथवा चारण
बनब’ चाहै अछि विन्ध्याचल
भड़कैछ भये
सूर्यक वाहन

कयलनि प्रार्थना बहुत ऋषिगण
देव-दल मना क’ थाकि गेल
भेलै’ नहि
विन्ध्यक क्रोध-शमन

कयलहुँ ते आबि अहँक दर्शन
देशक अखण्डतापर संकट
अछि आबि तुलायल-
ऋषिकुल - धन!’’

कहलनि अगस्त्य: ‘‘चिन्ता न करू!
ओ हिमालयक प्रतिस्पर्धी अछि
हमरे आगाँ
निहुरत, ठहरू!

हम पहुँचि रहल छी तुरत बढ़ू
भारत अछि एक, एक रहतै’
नहि उद्धत विन्ध्य
बनत उकरू’’

कयलनि अगस्त्य काशीक भ्रमण
साक्षी विनायकक नमन, काल -
भैरव आ
विश्वनाथ - पूजन

काशीमय भेल छलनि तन-मन
छटैत छलनि नहि स्थान-मोह
नहि बढै़ छलनि
विन्ध्य दिस चरण

एक दिस मोक्ष तीर्थाकर्षण
दोसर दिस राष्ट्रीय कर्त्तव्यक
दक्षिण रागमय
आमंत्रण

चमकल तखने लोपाक नयन
बाजलि: ‘‘हे अमर मंत्रद्रष्टा!
कर्त्तव्य धर्म अछि
मोक्ष भ्रमण

अछि हारि रहल कर्त्तव्य भाव?
व्यक्तिगत मोक्षसँ अछि लगैत
सामूहिक मुक्तिक
कम प्रभाव?

दक्षिणमे की मंत्रक अभाव
रहतैक सदा, आ विन्ध्याचल
त्यागत नहि
बाधक जड़ स्वभाव?

हे मंत्र-ज्ञान विज्ञानक स्वर!
जड़मे चेतनता भरू अहाँ
अछि अहँक
आणविक शक्ति प्रखर

माया त्यागू भ’ कर्म-मुखर
संस्कृति जय यात्रा करू आइ
उत्तरसँ
दक्षिणधरि सत्वर’’

लोपाक शाक्त स्वर-समादेश
रुचलनि; लगलनि जनु भेलनि अछि
तन - मनमे
नव शक्तिक प्रवेस

व्यक्तिगत मुक्तिके दाबि देश
जागल विराट आकांक्षा बनि
अनुभव कयलनि ऋषि
स्थिति विशेष

चितिमे आत्मा, आत्मामे चिति
राष्ट्रमे व्यक्ति, व्यक्तिमे राष्ट्र
तन्मय जनु -
तत्सम - तद्भव गति

जागल राष्ट्रक एकल संस्कृति
भ’ गेल आर्य स्वर द्रविड़मुखी
नहि रहल अपरिचित
नव परिचित

भेला ऋषि दम्पति रथारूढ़
ऋषिका लोपासँ ऋषि अगस्त्य
कहलनि:
‘‘न रहि सकत विन्ध्य मूढ़

नहि कोनो भौतिक सत्य रूढ़
आदेश चेतनक मानत जड़
कयलहुँ अछि
अनुसंधान गूढ़’’

ध्वनि विद्युत चालित रथ ससरल
झंझा बनि विन्ध्य निकट पहुँचल
ऋषिके देखैत-
विन्ध्य निहुरल

नतमस्तक विन्ध्य विषयवत् छल
बाजल: ‘‘आदेश करू गुरुवर!
अछि अहँक
ऋषीच्छा शक्ति प्रबल’’

कहलनि ऋषिवर: हे विन्ध्यराज!
छी अहाँ श्रेष्ठ पर्वत श्रेणी
औदात्यपूर्ण
हो अहँक काज

देशी स्वरमे देशीय साज
झंकृत भेने सुखकर बनैछ
ध्वनि - कम्पनसँ
निकलैछ राग

पाथर होइछ जड़, अहँ चेतन
हम अहँक शिष्टता सौजन्यक
पढ़लहुँ
विनम्रता - प्रतिवेदन

भ’ गेल हमर स्वर-सम्प्रेषण
से जानि प्रसन्नहृदय छी हम
दै’ छी आशीष
तृप्त हो मन

अहँ हमर एक टा काज करू
आकाशी मिथ्या-मोह त्यागि
हे विन्ध्य!
धरा पर राज करू

दक्षिण जायब, पथ दिय, झक
शीघ्रे अयबाक कार्यक्रम अछि
घूमी ताधरि
निहुरले रहू’’

भ’ गेल विन्ध्य गिरि तुरत लंघ्य
साष्टांग प्रणाम कयल, बाजल
‘‘गुरुवर!
छी अहाँ विशेष वन्द्य’’

गेला ऋषि, धरती भेल धन्य
सूर्यक पथ-बाधा दूर भेल
कहलनि ऋषिगण
ऋषिके प्रणम्य

नहि भेल ऋषिक प्रत्यावर्त्तन
विन्ध्याचल बाट तकैत रहल
झुकि क
करिते रहि गेल नमन

भेलै’ उत्तर - दक्षिण - संगम
भारत अखण्ड रहि गेल तथा
पसरल सभठाँ
दिनकरक किरण

लोपाक नयनमे उगि आयल
सम्पूर्ण भारतक मानचित्र
बाजलि:
‘‘जन युग अछि जगि आयल

हिम-नगसँ सागर नियरायल
अछि आब सड़क-सम्पर्क सुलभ
विन्ध्यक बाघा
अछि भसिआयल

मध्यस्थ विन्ध्यसँ जन-पथ टा
बाधित छल; देव गगन मार्गे
उड़िते छलाह,
ल’ सुख सभटा

रुकतै’ नहि आब चरण-रथ टा
बदलल देशक परिवहन-नीति
भेटल -
भौगोलिक व्यापकता

उड़तै’ न आब केवल विमान
चलतै’ उत्तरसँ दक्षिणघरि
राति दिन
जन-गणक चरण यान

अछि विन्ध्य विजय बड़का प्रमाण
जे देशक जनता जागल अछि
प्रचलित-
न आब वैषम्य गान’’