सात तारे आकाश में / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
उग आते हैं वो सात तारे आकाश में और यूँ ही बैठा रहता हूँ मैं
यहीं इसी घास पर, गुलमुहर से लाल मेघों तले;
गंगासागर की लहरों में मृत मनिया की भाँति सूर्य के डूब चुकने के बाद –
आती है शांत अनुगत नीली संध्या,
मानो उतर रही हो लहराती अपनी अलकों को अम्बर से कोई अप्सरा;
मेरी आँखों पर, मेरे चेहरे पर बल खाती हुई - उसकी पाद चुम्बित काकुली
मानो इस धरती की नहीं हो, कहीं देखा नहीं कभी ऐसे अजश्र प्रवाहमान केश
अविरत चुम्बन को लालायित जिसके पलाश, कटहल, जामुन के झड़े-बिखरे पत्ते
जाना नहीं था एक स्निग्ध महक भी होती है केश-विन्यास में किसी रूपसी के
यूँ ही कभी किसी राह में गुजरती; नरम धान की गंध – सेमलवन की महक,
वनतुलसी, बैंगनी पुटुस की झलक, खेतों की ओर बहते पानी,
बादलों के ओट से चाँद की भीनी-भीनी खुश्बू,
चावल धो चुकी किशोरी के ठंडे भींगे हाथ –
किशोरों के पाँवों से दलित घास –
वट के लाल लाल फलों के व्यथित महक से क्लांत नीरवता –
तभी तो पता चलता है, उग आते हैं जब सातों तारे आकाश में;
और इसी में तो बसता है मेरे गाँव का प्राण।