भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साथ चल के भी मिल न पाये हम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
साथ चल के भी मिल न पाये हम।
आप थे धूप और साये हम।
वर्ष दो वर्ष लड़खड़ाये हम।
दौड़ना तब ही सीख पाये हम।
जलजले सा वो छू गये हमको,
और इमारत से थरथराये हम।
रोज़ वो काटते गये हमको,
रोज़ उनसे बढ़े सवाये हम।
यूँ बुलाया के दास हों उनके,
और शिकवा है क्यूँ न आये हम।
एक बर्तन में बर्फ़ पानी से,
या ख़ुदा यूँ न हों पराये हम।
यूँ हमें रौंदती गईं सदियाँ,
धूल बन आसमाँ पे छाये हम।