साथ / जया पाठक श्रीनिवासन
महामिलन-
धरती और अम्बर का
पीड़ा और अनुभूति का
ममत्व और सामर्थ्य का
दीखता है दूर कहीं
धुंधलके में छिपी
क्षितिज की बारीक सी रेखा में
सोचती हूँ
यह प्रणया पृथ्वी
चिर तृषित
क्षुब्ध
समर्पिता
और वह
प्रियतम आकाश
चिर अव्यय
मधुमय सा
बातें तो करते हैं
आपस में
समर्पण की मौन भाषा में
उसके आवेगों के सावन में
इसका प्लावित होना
इसकी पीड़ा की गर्द से
उसका ह्रदय पसीजना
यदि प्रतीक है
सच्चे प्रेम का
तो इनका मिलना
क्षितिज की सूक्ष्मता में पूर्ण कैसे?
पर शायद
स्थूल नहीं होता
संबंधों की पूर्णता का पर्याय
मन के बंधे लोग
साथ साथ चल सकते हैं
समानांतर रेखाओं पर
नदी के दो किनारों की तरह
बातें करते
लहरों की ध्वनि प्रतिध्वनि में
सांस ले सकते हैं
युगों तक एकसाथ
धरती और आकाश की तरह