शिशु के शव का आसन करके विराजमान होते थे
ताराखेपा आगे तुमुल मचाते उनके गुरु बामाखेपा ने
दिया मन्त्र उत्किलीत
तारा प्रकट हुई ताराखेपा की स्त्री के रूप में
कसे, कामाकुल स्तन और पद्म की भाँति भग
भुजाएँ श्याम और अजानुविलम्बित, मुक्तकेशी
तारा के माथे पर नील पड़ा था, स्वामी ताराखेपा ने
चिमटें से मार दिया था बीती रात्रि
नैवेद्य जो लाए थे यदि खाए न तारामाँ तो पीटते थे
ताराखेपा
'देखो रक्त निकल आया स्वामी, बहुत ज़ोर का
मारा तुमने, मछली की रसिक हूँ मैं, मुझे मत
लाया करो दहीभात'
ताराखेपा की कई रात्रियाँ तारकेश्वरी के संग
व्यतीत हुई स्वामी-स्त्री की भाँति
दन्तरेखाओं से भर गए उनके कन्धे और भुजाएँ
रस से भरे घट की भाँति तुष्ट और मोटे, आनन्दातिरेक के
कारण सदैव अकारण हास से भरा रहता था उनका मुख
प्रात:काल जब मंदिर आते तब उनके कण्ठ पर
देवी का नखाघात चन्द्रमा की भाँति दिन को
शीतल किया करता था
प्रेम से वह श्यामबरन देवी को खिझाने को कौमुदी
डाकते थे, देवी राग होती तब
फिर एक रात्रि उन्हें हो गया बैराग्य
देवी तारा को त्याग, डाल ली श्मशान में खाटूलि
और पुनः लौट के न आए ।