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साधो, मिली-जुली ये कुश्ती / महेंद्र नेह
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साधों, मिली-जुली ये कुश्ती ।
लोकतन्त्र की ढपली ले कर करते धींगा-मुश्ती ।।
जनता की मेहनत से बनती अरबों-खरबों पूँजी ।
उसे लूट कर बन जाते हैं, चन्द लुटेरे मूँजी ।।
उन्ही लुटेरों की सेवा में रहते हैं ये पण्डे ।
जनता को ताबीज बाँटते कभी बाँटते गण्डे ।।
इनका काम दलाली करना धर्म न दूजा इनका ।
भले लुटेरा पच्छिम का हो या उत्तर-दक्खिन का ।।
धोखा दे कर वोट माँगते पक्के ठग हैं यारों ।
इनके चक्रव्यूह से निकलो नूतन पन्थ विचारो ।।