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साध पुरी, फिरी धुरी। / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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साध पुरी, फिरी धुरी।
छुटी गैल-छैल-छुरी।
अपने वश हैं सपने,
सुकर बने जो न बने,
सीधे हैं कड़े चने,
मिली एक एक कुरी।
सबकी आँखों उतरे
साख-साख से सुथरे,
सुए के हुए खुथरे
ऊपर से चली खुरी।
सजधजकर चले चले
भले-भले गले-गले
थे जो इकले-दुकले,
बातें थीं भली-बुरी।