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सान्निध्य की सीमा / आन्ना अख़्मातवा
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सान्निध्य की भी होती है अपनी पावन सीमाएँ
जिनका अतिक्रमण न प्रेम कर सकता है न वासनाएँ
भले ही एक हो जाएँ होठ भयानक खामोशी में
और प्यार में हो जाएँ हृदय के टुकड़े-टुकड़े।
अशक्त पड़ जाती है मित्रता
अभिजात और अग्निमय सुखों के वर्ष
जब मन हो जाता है मुक्त और पराया
प्रेम की धीमी थकान के लिए।
दीवाने हैं वे जिनका लक्ष्य होता है वह
पा लेने वाले हो जाते हैं पराजित अवसाद से।
अब तो तुम समझ गए होंगे
क्यों नहीं धड़कता है तुम्हारे हाथों के नीचे मेरा हृदय।