सान्निध्य / विमलेश शर्मा
शाख तुम्हें याद है
प्रात: तुम्हारे ही फलक पर
पात संग, केसरी टेक लिए
सिंगार फूला था!
निस्तेज
वह बिखरा है
अभी सांध्य-वेला में
डार से बिछुड़ा
धूल-धूसरित
मोम के क़तरे-सा
वह मोतियारंगी फूल
ख़ुश है तो बस इसलिए
कि तुम्हें
उसके विलग होने पर उपजी
रिक्तता का भान है
बस यही उसका मान है!
(इतना ही कोमल था एक मन ग़र तुम सहेज पाते...! हर फूल आँगन-सिंगार नहीं हो सकता पर यह मन से फूला था, इस आँगन में जैसे कोख में कोई शिउली फूल। टूटना बिखरना नियति का हिस्सा है, यह कहकर हर कोई हाथ, साथ छुड़ा सकता है। पर एक मन तो खिलता रहा था न? तुम्हारी प्रेम-धूप पर। ताप के ताये उन दिनों में भी वह भीतर अपनी सुवास को सहेजता रहा। रात की जम्हाई में कुमुदिनी-सा एकटक तुम्हें देखा किया और अंतत: एक झोंके से ही बिखर गया...कोमल हवा की मार भी दरक उपजा देती है...यह ठीक तभी जाना था...उसे खिलते देखते हुए. उसे बिखरते देखते हुए!)