भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साप / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
अै
जायदादां रा झौड़
अैकर नाकै छोड
हिवड़ै में सोच
नैठाव सूं
निसताई सूं
स्सौ की बटं जासी
हो जासी दो-दो पांती
घर-जर/जमीं-जागां
पण
है मा-पेट रो सीर
सुण म्हारा बीर
आपां सोयोड़ा हां
अैक ओझर में
आ रंगा में बै’वे थारै-म्हारै
अेक ई लोई/बता उण पेट
ओझरी अर लोई रो/कांई करस्यां?
बां मायतां रै
जीवंता थकां
बता बां मायतांरी आतमा रै
बध रो साप
कुण झेलसी?