भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साफ़गोई से कहा कोरा कहा / प्रेम भारद्वाज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



साफ़गोई से कहा कोरा कहा
जो कहा डट कर कहा सीधा कहा

फिर पुरानी सोच पीछे पड़ गई
शे'र हमने जब कोई ताज़ा कहा

ख़ुदनुमाई हाक़िमों की क्या हुई
टट्टुओं को नस्ल का घोड़ा कहा

अक़्स अपना ढूँढते रह जाओगे
हर हसीं चेहरे को शीशा कहा

कर दिया मजबूर किसने आपको
आपने फिर क्यूँ हमें अपना कहा

बात करते हैं ग़ज़लगो प्रेम की
यार लोगों ने उन्हें क्या— क्या कहा.