भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साब! हाँ ये जिस्म का बाज़ार है / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
साब! हाँ ये जिस्म का बाज़ार है।
पर यहाँ ईमान की सरकार है॥
आख़िरी हिचकी से पहले रो दिए
कह नहीं सकते थे हमसे प्यार है॥
नासमझ की इक समझ ये शायरी
कुछ नहीं है दर्द का सिंगार है॥
हर शहर में इक दुकां है आपकी
आपका तो झूठ का व्यापार है?
क्या हुआ विश्वास अब दिखता नहीं
सुन रहे कई साल से बीमार है॥
अब ख़ुदा से भी ख़ुदाई छीन ले
कौन रोकेगा तेरी सरकार है॥
साथ हम मिट्टी के अपनी आ गए
क़ब्र से पूछो क्या वह तैयार है॥
मूठ से तलवार धड़ से सर अलग
जीत किसकी और किसकी हार है॥
नाम "सूरज" रख दिया माँ-बाप ने
आग अब जैसी भी हो स्वीकार है॥