देखी निज भारत की भारी दयनीय दशा,
मर्म पे अचानक अचूक लगा नेज़ा था।
प्यारी मातृभूमि को निहारा परतंत्र जब,
दारूण व्यथा से हुआ द्रवित कलेजा था।।
देश को स्वतंत्र करने का प्रण ठान लिया,
दीन-दुखियों को दर्द दिल में सहेजा था।
सत्यव्रत धारी औ’ अहिंसा का पुजारी दृढ़,
भूतल पे विधि ने बना के उसे भेजा था।।
ऊपर धरा पे बन आया सुध-वारिधर,
लाया देश वाटिका में नूतन वसंत था।
सारे सुख-वैभव लगाए लक्ष्य दाँव पर,
धारे उर-अंतर में साहस अनंत था।।
जीता अस्त्र-शस्त्र बिना ही स्वत्व संगर को ,
ऐसा धीर-वीर गुरू ज्ञानी गुणवंत था।
रख दी फिरंगियों के राज्य की हिला के नींव,
अद्वितीय साबरमती का वह संत था।
भीषण विपत्तियों में भीत हो न पाया रंच,
ध्येय धारणा क विपरीत न कभी गया।
सत्य की सुरक्षा हित पीना विष भी जो पड़ा,
शिव के समान मधु जान उसे पी गया।।
पावन बनाया पतितों को भी लगाया कंठ,
माँ की महिमा के चाक दामन को सी गया।
ऐसे भी हैं लोग जो कि जीते जी ही जाते मर,
बापू मर के भी किंतु मरा नहीं, जी गया।।