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सामने तूफान चाहे / हरिवंश प्रभात

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सामने तूफान चाहे, लाख झंझावात है
लक्ष्य तक पहुँचे बिना, विश्राम की क्या बात है।

शूल मग में गर बिछाये ये जगत सोचे हुए,
स्वयं खड़ा पर्वत हमारी राह को रोके हुए,
किंतु पर्वत धूल-सा, सब शूल बनकर फूल होंगे
तनिक विचलित कर सके किसमें बची औकात है।

खोज की अंतर्जगत की रोशनी एकत्र की है
खोजकर जीवन रहस्यों को सदा सर्वत्र दी है
सत्य से अवगत कराया, दुनिया को जब भी चाहा
ज्ञान की गरिमा को ऊँचे स्वर से की बरसात है।

कोई सानी है नहीं अध्यात्म की जड़ है यहीं पर,
धर्म और विज्ञान का प्राचीन तरुवर है यहीं पर
ज़िंदगी औरों की खातिर है कला हमने ही दी
ब्रह्म के आनंद सागर में डुबा ले गात है।

मेघ बन संदेह के बिचरो नहीं चेतावनी है
भोग की चाहत को भी त्यागो जो संकटदायिनी है,
सृष्टि को ही हम सदा से शांति का उपदेश देते
पथ दिखाता जब विवेकानंद भी दिन रात है।

कौन है ललकारता नभ में सिंहासन गाड़कर
चित्रकारी प्रकृति की रख चाहता है बिगाड़कर,
समझ लो वह उलटे ही अपने मुँह की खायेगा
ठहरे अंधेरा कहाँ जब सामने ‘प्रभात’ है।