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सायकल पर सवार कुनबा / रजत कृष्ण
Kavita Kosh से
सायकल पर सवार
एक पूरा का पूरा कुनबा यह
बहुत कुछ कहता है !
अपने ही देश में
ख़ानाबदोश घूमते
ऐसे न जाने कितनें होंगे
हो चुके दफ़न कितने
काल की गति में !
यह वे नहीं
जिन्हें जानता हो कोई पटवारी
ना ही पता इन्हें
क्या होता पत्ता..परचा
क्या नक़्शा..खसरा
पुरखों की ज़मीन का....
जो बखत पड़े पर
अपनी पहचान साबित करने के
काम आवे !
यह जानते तो फ़क़त यही
कि बित्ते भर पेट की ख़ातिर
लाँघनी होती रोज़...रोज़
सड़कें लम्बी ..गहरी खाई !
नहीं होता पोस्ट ..मुकाम
अपना इनका
पहुँचे जहाँ कुशल...
क्षेम की चिट्ठी-पत्री कोई !
गोड़ से मूड़ तक
अनचिन्हारी में डूबे
न जाने कितने हैं ऐसे
जो कब आए इस धरती पर
और काल की गति नाप
कब चले गए कहीँ ..
न हमें पता, न पता तुम्हें !!