साया काल का / अश्वनी शर्मा
गंधाती बनियान को
पेट के ऊपर तक
खिसकाकर
हथेलियों से रगड़कर
मैल की बत्तियां उतारता
गांव का बनिया
उदास सा ताकता है
उतरते सावन में
दूर तक निरभ्र आकाश को
उदास सा हाथ फेरता है
बही के पीले पन्नों पर
इस साल भी
आंक ही बढ़ेंगे
इस बही में शायद
उड़ती सी नजर डालता है
पास से जाती
सुरजी पर
घ्ंाूघट में से दिखता है
जिसका बढ़ा पेट
और पीला चेहरा
गायें लेकर जा रहे
रामधन को
आवाज लगाता है
‘आज बीड़ी माचिस बिना’
रामधन उदास पर
ललचाई सी नजर ले
आ बैठता है चबूतरे पर
वो कुसुगना
डांगरो की हड्डी का ठेकेदार
कसाई
डोलने लगा है
गांव में
धीरे से फुसफुसाता है
रामधन
पटवारी जी का संदेशा
आ गया था
कल आयेंगे
गिरदावरी पहले
करवा रही है सरकार
नर्स बाई भी आई थी
लाल-पीली गोलियां बांटने
पसरे सन्नाटे में
सांय-सायं करती
लू की आवाज सुनाई देती है
दुकान के पास हांफता हुआ कुत्ता
अचानक मुंह उठाकर रोने लगा है
गांव पर अकाल का साया मंडरा रहा है।