साया / वर्षा गोरछिया 'सत्या'
सांवला सा इक साया
गीली लकड़ियों के धुंए सा
साथ घूमता रहता है
पूर्णिमा की रात में
मेरा हाथ थामे
कुछ कहता नहीं
बोलता ही नहीं कमबख्त
बस एक दुधिया कोहरे के
तावीज़ में घेरे रहता है मुझे
कितनी बार झगड़ लेती हूँ
रूठ जाती हूँ
देखती तक नहीं
उसकी तरफ
मगर बड़ा ढीठ है
मुस्कुरा देता है और बाँध कर इन्ही चालबाजियों में
ले जाता है मुझे
फिर उसी शिकारे पर
झील के बीचों बीच
अकेले में
जिस्म झील के किनारे
छटपटाकर गिर पड़ता है
कई बार देखा है मुड़कर मैंने
पड़ा ही रहता है
हिलता तक नहीं
मैं शिकारे में सवार
उस सावले से साए का
हाथ थामे
जाने कहाँ जाती हूँ
गुम रहती हूँ घंटों
और लौट आती हूँ
वो साया जाने कब
शिकारे से उतार मुझे
लौट जाता है कोहरे में
जिस्म उठा ही रही होती हूँ कि
चिड़िया चहचहाने लगती है
वो लाल गुबारा
आ जाता है खिड़की पर
आँख खुल जाती है