भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सारस / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
हाँ, हमने कब और कहाँ
देखे थे सारसों के जोड़े
शायद बचपन के दिनों में
जब कट रहे थे धान के खेत
वहीं पर सारसों को किलोल करते
देखा था
इतने वर्ष बीत जाने के बाद
वह दृश्य मेरी स्मृति में
ज्यों का त्यों टँगा है
इस तरह की उत्फुल्लता नहीं
देखी थी हमने
जैसा हमने देखा था
सारसों के जीवन में
परिन्दे बहुत आए और
चले गए
बहुत सारी तितलियाँ
उड़ती रहीं हमारे आस-पास
आख़िरकार वे भी अच्छे
दिनों की तरह कहीं उड़ गईं
उनके पंख छूट गए हैं हमारी
डायरी में