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सारी दुनिया के तअल्लुक से जो सोचा जाता / 'क़ैसर'-उल जाफ़री

सारी दुनिया के तअल्लुक से जो सोचा जाता
आदमी इतने कबीलों में न बाँटा जाता

दिल का अहवाल न पूछो के बहुत रोज़ हुए
इस ख़राबे की तरफ मैं नही आता जाता

जिंदगी तिश्ना-दहानी का सफर थी शायद
हम जिधर जाते उसी राह पे सहरा जाता

शाम होते ही कोई शम्मा जला रखनी थी
जब दरीचे से हवा आती तो देखा जाता

रौशनी अपने घरोंदों में छुपी थी वरना
शहर के शहर पे शब-खून न मारा जाता

सारे कागज़ पे बिछी थीं मेरी आँखें ‘कैसर’
इतने आँसू थे के इक हर्फ न लिक्खा जाता