लगभग सारी दुनिया सो रही है इस वक़्त
चुपचाप... चुपचाप !
मैं जगा हूँ दिन भर हाड़-तोड़-मेहनत के बाद भी
मैं जगा हूँ
क्योंकि कवि नहीं मैं
मुर्दा ख़ामोश नहीं मैं
भौंकने वाला कुत्ता हूँ
दोस्त ! मैं जगा हूँ इसलिए
कि मुझसे कई-कई रात छीना गया
झपटा गया मेरी मीठी सुपारी-सी नींद को
तोड़ा गया मेरे सलोने सपने को
थूक दिया गया मेरे भूखे,
अधनँगे बीमार बदन पर
रौन्दा गया मुझे बार-बार
क़त्ल किया गया मुझे
केले के गाँछ की तरह
फिर भी मरा नहीं मैं, इतना दुख के मारने से
फिर भी हारा नहीं मैं अन्धेरों के खिलाफ लड़ने से
अभी दुख की मुट्ठी भर राख और कुछ दूब की घासों से माँजा गया चमकता बर्तन हूँ मैं
अभी हरा हूँ काला हूँ नीला हूँ पीला हूँ ज़िन्दा हूँ मैं
क्योंकि अकेला नहीं मैं
असँख्य-असँख्य हूँ जैसे गेहूँ, धान, सरसों के दाने
मैं जगा हूँ
मेरी बात कोई नहीं सुनता !
मेरी बात कोई सुने
या न सुने
फ़र्क नहीं पड़ता उनके दिलो-दिमाग में
फ़र्क तो उन्हें पड़ता है
जिनकी दुनिया अन्धकार में है
जिनकी ज़िन्दगी की जान
धारदार हथियार खुरच रहे हैं दिन पर दिन
जिनकी मज़दूरी ही एक, केवल एक सोता है
रोज़ी-रोटी का
जिनके हिस्से की पृथ्वी
दोगले ज़मींदारों ने हड़प ली है
जिनके अपने
गए कमाने
पर लौटे आज तक नहीं
फ़र्क तो उन्हें पड़ता है
जिनके कोई देश नहीं
घोंसले को तिनका नहीं
खाने को एक मिट्टी का टुकड़ा नहीं
दाना नहीं
चोंच भर भी
नँग-धड़ँग तन ढकने को
गू-मूत में सना, फटा कफ़न-सा चिथड़ा नहीं
जिनकी बजबजाती हुई लाश का
कोई दाह-संस्कार भी करने
कराने वाला तक नहीं !
पर अब उन्हें , उन्हें फ़र्क पड़ना चाहिए
अन्यथा दुनिया में उन्हें जीना नहीं ,
जीना नहीं
मर जाना चाहिए
यदि उनके दिल और दिमाग में
न हो
आग में जलकर मरती हुई अन्तिम दुनिया को
बचा सकने के लिए
कोई सनक
कोई सोच ...।