भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सारे जहाँ से अच्छा / हरेराम बाजपेयी 'आश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ ये कमा रहे हैं,
कुछ वे कमा रहे हैं,
विश्वास जो किया था,
उसको भुला रहे हैं।

उनके यहाँ करोड़ों
जनता की जेब खाली,
कुछ मर रहे है भूखों,
उनकी सजी है थाली,
महंगाई को बढ़ाकर,
जीना घटा रहे है। कुछ ये कमा...

इन्सान तो इन्सान
पशुओं के साथ धोखे,
चारा भी खा गए वो,
खाली पड़े हैं खोखे,
चुपचाप जानवर है
पर वे रंभा रहे है। कुछ ये कम...
कुर्सी को बचाना ही,
इस देश की सेवा है,
वे रोज शपथ खाते,
हमें आश्वासनों की मेवा है
बैगों की छोड़िये जी,
जेबें है इतनी, चौड़ी,
नोटों की बात क्या है,
सांसद समा रहे है। कुछ ये कमा...

काही जाति की दुकानें,
कहीं धर्म के है धन्धे,
तन से ये देवता है,
मन से बड़े दरिन्दें,
घोटालों की मण्डियों में,
है ये बोलियाँ लगाते,
सारे जहाँ से अच्छा...
मस्ती में गा रहे है।

कुछ ये कमा रहे हैं
कुछ वे कमा रहे हैं॥