भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सारे दिन पढ़ते अख़बार / माहेश्वर तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारे दिन पढ़ते अख़बार;
बीत गया है फिर इतवार ।

गमलों में पड़ा नहीं पानी;
पढ़ी नहीं गई संत-वाणी;
दिन गुज़रा बिलकुल बेकार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।

पुँछी नहीं पत्रों की गर्द
खिड़की-दरवाज़े बेपर्द
कोशिश करते कितनी बार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।

मुन्ने का तुतलाता गीत-
अनसुना गया बिल्कुल बीत
कई बार करके स्वीकार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।
बीत गया है फिर इतवार ।