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सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या १ ते ५० / आदि शंकराचार्य

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जय जय स्वामी सद्गुरू। शंकराचार्य करुणाकरू।
मोक्षध्वजा परपारू। पाववीं निज दासा॥१॥

मी अज्ञानसागरीं पडिलों। मायाडोहींच सांपडलों।
ममता मगरीनें गिळिलों। येथून कष्टें न सुटें॥२॥

साधनेंही उदंड केलीं। कर्मंधर्मादि जीं आपुलीं।
परि तीं असतीं साह्य जालीं। अविद्येसी॥३॥

जपतापादि पुरश्चरणें। अथवा व्रते नाना दानें।
तीर्थयात्रा संतर्पणें। उद्यापनें शांती॥४॥

इतुकेंही आदरें करितां। परी उपशम नसेचि चित्ता।
मात्र अधिकच वाढे अहंता। म्यां केलें म्हणोनी॥५॥

मी अमुक एक रविदत्त। माता पिता जें नाम ठेवित।
हाचि देह मी असें निभा्रंत। सर्वदा दृढ॥६॥

परि मी पूर्वीं असें कवण। जन्मलों आतां आलों कोठोन।
मरतां कोणे स्थळा जाईन। हें नेणें मी सहसा॥७॥

परी आपण कोण हे जाणावें। ऐसा हेतु उद्भवला जीवें।
येर साधन जितुकें आघवें। तृणतुल्य जालें॥८॥

यास्तव देवी देव धुंडिले। अति निग्रहें प्रसन्न झाले।
तंव ते वर माग म्हणों लागले। देहबुद्धिच बळावया॥९॥

मग मी सर्वांसी उपेक्षून। गेलों सदाशिवासी शरण।
तिहीं स्वप्नामाजीं येऊन। सांगितले मज॥१०॥

कीं उठीं उठीं गा रविदत्ता। तूं भवभयाची न करी चिंता।
सद्गुरूसी शरण जाईं आतां। ममाज्ञेवरूनी॥११॥

प्रस्तुत मीच जगदोद्धारा। प्रगटलों असें निर्धारा।
ऐसिया अज्ञान कली माझारा। श्रीशंकर नामें॥१२॥

तस्मात् तया शंकरस्वामीसी। शरण जाऊनि या समयासी।
उपदेश धरूनियां मानसीं। अज्ञान जिंकीं॥१३॥

ऐशिया स्वप्नांतीं जागृती। पावोनी विस्मयापन्न जालों चित्तीं।
मग धांवोनी आलों सत्वरगती। शरण श्रीचरणा आतां॥१४॥

सद्गुरूराया मज। अंगीकारावें महाराज।
धन्य धन्य हा सुदिन आज। देखिले चरण॥१५॥
हा देह आणि मन। गुरूचरणीं केलें अर्पण।
यांत किमपि जरी घडे प्रतरण। तरी चूर्ण होवो मस्तक॥१६॥

जरी वाणी हे आणिका स्तवी। तरी ते तत्क्षणीं तुटावी।
चित्तें जरी अन्य कांहीं आठवीं॥१७॥

तरी घडावी ब्रह्महत्या या रीतींकरुनी निर्धार।
साष्टांग घालित नमस्कार। तारीं तारीं हा निज किंकर।
स्वकीय ब्रीद रक्षुनी॥१८॥

ऐसा अधिकारी पाहुनी। विचारें परीक्षिती अंतःकरणीं।
हा चतुष्टय संपन्नत्व पावोनी। शरण आला असे॥१९॥

सत्य मिथ्या यासि कळलें। म्हणोनि असत्यासी मन विटलें।
हेंचि नित्यानित्य विचारिलें।॥२०॥

सत्य कळावें इच्छितां ब्रह्म जाणावें जें इच्छा होणें।
हेंचि मुमुक्षुत्वाचीं लक्षणें। आणि इह पर भोगासि उबगणें।
हेचि विरक्ति॥२१॥

अन्य मनाचे सांडोनि तर्क। आत्मा वोळखून धरावा एक।
हाचि शम निश्चयात्मक। इंद्रियनिग्रह तो दम॥२२॥

सर्वांपासून तो परतला। हाचि असे कीं उपरम झाला।
न भी कदां सुखदुःखाला। हेचि तितिक्षा॥२३॥

सद्गुरुवचनापरतें कांही। यासि दुजेंच उरलें नाहीं।
हेहि श्रद्धा निःसंदेही। समाधान एकाग्रता॥२४॥

तस्मात् साधन चतुष्टयता। अर्थात् आली याचिया हातां।
ऐशिया अधिकारिया उपदेशिता। दोष हा कवण प्रज्ञा जरी मंद असे।॥२५॥

तरी उपदेशांवें सदभ्यासें। वृत्ति खलितां दृढ विश्र्वासें।
अपरोक्षता बाणे॥२६॥

ऐसा हेत ठेऊनि अंतरीं। उठविती रविदत्ता करीं।
नाभी नाभी बोलती उत्तरीं। मनोरथसिद्धि होय॥२७॥

परी आम्ही उपदेशूं आतां। तें दृढ विश्र्वासें धरी चित्ता।
आणि अभ्यासें हें वृत्ति खलितां। अपरोक्ष पावसी॥२८॥

अपरोक्ष म्हणजे आपण कोण। तें निजरूप आंगेचि होणें।
परोक्ष म्हणजे आपण। ओळखावें आपणा॥२९॥

गुरुवचनीं विश्र्वास। तरी पाविजे परोक्ष ज्ञानास।
तस्मात् श्रद्धा असावी चित्तास। तरी आत्मत्व ओळखसी॥३०॥

मात्र अपरोक्ष ज्ञान व्हावया। विचार पाहिजे शिष्यराया।
तोही अभ्यासें पावेल उदया।॥३१॥
निःसंशय आपणाची प्रस्तुत तुज परोक्षज्ञान।
उपदेशिजे घे ओळखून। तेंचि विश्र्वासें दृढ करून अभ्यास करी॥३२॥

तूं हेतु धरोनि जो आलासी। कीं जाणावें आपआपणासी।
तो तूं कोण या समयासीं। बोलिजे अवधारी॥३३॥

चहूं वेदांचीं वाक्यें चार। याचा अर्थ तो एक साचार।
कीं जीवनब्रह्मऐक्य निर्धार। हा विषय वेदांतींचा॥३४॥

त्यांत उपदेश वाक्य तत्त्वमसी। तें विचारून घ्यावें गुरूपाशीं।
मग अहंब्रह्मास्मि या वाक्यासी।॥३५॥

वृत्तीनें दृढ धरावें तरी अवधारीं एकाग्र भावें।
तें तूं ब्रह्म अससी स्वभावें। अहंकारादि देहांत आघवें।
आपण नव्हें सत्य सत्य॥३६॥

मी ब्रह्म आत्मा स्वतःसिद्ध। एकरूप असंग अभेद।
ओळखून घेईं प्रभाद। देहबुद्धीचा सांडुनी॥३७॥

हेचि अहंब्रह्मास्मि निश्चिती। वाक्यार्थाची जे अनुभूती।
ऐशी वृत्ति ते वाक्यवृत्ति। हा वृत्तीसी अभ्यास॥३८॥

कायिक वाचिक मानसिक। शास्त्रीय अथवा जी लौकिक।
कर्में घडतांहि अनेक। परी अभ्सास सोडूं नये॥३९॥

अभ्यास म्हणजे मी ब्रह्म आपण। या अर्थाचें अनुसंधान।
कदापि न पडावें विस्मरण। अहर्निशीं सदा॥४०॥

तूं म्हणसी आत्मा ब्रह्मपूर्ण। याचें किमात्मक असें लक्षण।
तें यथार्थं ओळखिल्यावांचून।॥४१॥

अनुसंधान केवीं घडे तरी अवधारावें निश्चित।
अहंकारादि जितुकें देहांत। यांत आत्माही झाला मिश्रित।
अज्ञान वसे कडोनी॥४२॥

यासी विवेचन पाहिजे झालें। देहादि मिथ्यात्व जरी त्यागिलें।
तरी आत्मत्व जाय निवडिलें।॥४३॥

त्रिविधा प्रतीतीनें तेंचि विवेचन म्हणसी कैसें।
बोलिजेत असे अपैसें। तरी सावधान असावें मानसें।
दुश्चित्त न होतां॥४४॥

जैसा माळेंतून तंतु निवडावा। कीं मणीच तंतूवरील ओढावा।
तैसा देहादिकाहून ओळखावा। आत्मा भिन्न॥४५॥

अथवा देहादिक हे ओळखुनी। भिन्न करावे आत्मयाहूनी।
हें सर्व कळेल निरूपणीं।॥४६॥

अती सावधान जरी होसी ऐसें बोलतां आचार्य माउली।
रविदत्तें वृत्ति सावध केली। शब्दासरशी झेंप घाली।
मनें अर्थावरी॥४७॥

रविदत्त एक उपलक्षण। परी जे जे असती अधिकारी पूर्ण।
तेही असावें सावधान। आचार्य गुरुवचनीं॥४८॥

चातकासाठीं वर्षे घन। परी सर्वांसीच होय जीवन।
तेवीं रविदत्ताचे निमित्तें कडोन। सर्वही अवधारा॥४९॥

परी भूमीचा सांडून चारा। जो घन लक्षी तो चातक खरा।
तेवीं देहादि विषय हे अव्हेरा॥५०॥