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सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या २०१ ते २५० / आदि शंकराचार्य

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गंधामुळें पृथ्वी जाली। पृथ्वींत गंधता उमटली।
यास्तव पृथ्वी हें नाम पावली। गंध विषय तन्मात्रा॥२०१॥

आकाशीं अवकाश धर्म। सच्छिद्रता असे कर्म।
शब्द गुण हा असे नेम। त्यापासून वायु॥२०२॥

शब्द स्पर्श वायु द्विगुण। धर्म जयाचा चंचळपण।
कर्म हेंचि सर्वत्रीं विहरण। त्यापासाव तेज॥२०३॥

शब्द स्पर्श रूप त्रिगुण तेज। दहन-धर्म हा सतेज।
पचन-कर्म हें असे सहज। त्यापासून आप॥२०४॥

शब्द स्पर्श रूप रस गुण। द्रवत्व धर्म आपीं संपूर्ण।
क्लेदनत्व कर्म हें गहन। त्यापासव पृथ्वी॥२०५॥

शब्द स्पर्श रूप रस गंध। हे पांचही पृथ्वींत प्रसिद्ध।
कठिण धर्म हा विशुद्ध। धारणा कर्म॥२०६॥

एवं तन्मात्रासहित भूतें। तमोगुण द्रव्यशक्ति जे ते।
हेंचि स्थळ रहावया चराचरातें। त्रिभुवनात्मक जालें॥२०७॥

ऐसी ये भूततमाची उत्पत्ति। सांगितली अल्प रीती।
भूत रजसत्वाची जी जी होती। ती सांगितली मागां॥२०८॥

जो लिंगदेह सत्रा कळांचा। मागें विस्तार बोलिला त्याचा।
तेवीं प्रकार पंचीकरणाचा। बोलिला असे॥२०९॥

पंचीकृत स्थूळदेहाची। उभवणी केली चैखाणींची।
त्याँत लिंगदेह प्रवेशतांची। चळण होतें जालें॥२१०॥

परीं इतुकें जें उत्पन्न जालें। तितुकियासी दोन कारणें आथिलें।
नेणीव तादात्म्य चैतन्य बोलिलें। तें उपदानकारण॥२११॥

उपादान म्हणजे त्याचेंच जालें। होऊन त्यामध्येंच वर्तलें।
शेवटीं अज्ञानीं लया गेलें। रज्जु सर्पापरी॥२१२॥

कोणी म्हणेल ब्रह्माचि कारण। तरी तें शुद्ध विकारी नव्हे पूर्ण।
तेथेंचि वाउगें उठे जें अज्ञान। त्यासह कारण बोलिजे॥२१३॥

जेवीं रज्जूच एकटी सर्पासी। कारण नव्हे निश्चयेंसी।
न कळणें मिळतां तयासी। प्रयोजन सर्पा॥२१४॥

तैसेंचि अज्ञानसह अधिष्ठान। जगासी उपादान कारण।
आणि विद्येसहित आभास ईशान। निमित्त कारण असे॥२१५॥

निमित्त म्हणजे मात्र ईक्षण। इच्छेसरिसें होय निर्माण।
एवं गुणादि देहाँत जें उत्पन्न। ईशें केलें॥२१६॥

विद्या अविद्या प्रतिबिंबें दोन। जें मागें सांगितलें लक्षण।
परी प्रवेश नसतां भिन्न भिन्न। नसती किंचित्॥२१७॥

ऐसे उभयतांही आभासपणीं। येकत्रचि असतां दोन्ही।
प्रवेशकाळीं अज्ञान घेऊनी। प्रवेशला पिंडीं॥२१८॥

एवं ईक्षणादि प्रवेश अंतीं। इतुकी ईशें केली उत्पत्ति।
प्रवेशानंतर जीवकृति। होती जाली॥२१९॥

स्थूळ देह हाचि घट। लिंगदेह पाणी हें दाट।
त्याँत जीव प्रतिबिंब अवीट। लिंगदेह जोंवरी॥२२०॥

अज्ञानसहित जीव आभास। देह द्वयाँत याचा प्रवेश।
हाच पिंड तादात्म्य सावकाश। घेऊन बैसला॥२२१॥

मुळीं अहंब्रह्म जे स्फूर्ति। ज्ञानाज्ञानात्मक होती।
ते स्पष्ट जालीं प्रवेशांतीं। देहामाजीं॥२२२॥

ते स्फुर्ति निजरूपा विसरली। पुढें जालें तें पाहों लागली।
तेचि विक्षेपशक्ति बोलिली। वासनात्मक॥२२३॥

त्या वासनेचे सत्रा प्रकार। पूर्वीं सांगितला विस्तार।
तया लिंगदेहाचें बिढार। तो स्थूळ मांसमय॥२२४॥

एवं वासनेंत जें प्रतिबिंबलें ं चैतन्य जें त्यास जीव नाम आलें। तें देहद्वयासी पाहों लागलें।
परी विसरलें निजरूपा सर्प जेवीं भाविला असतां। रज्जूचें न कळणे जालें चित्ता॥२२५॥

तेवीं देहद्वय स्फुरूं लागतां। अज्ञान जालेंसें कल्पावें यासि कार्यानुभेव म्हणावें।
 कीं कार्य देहद्वयास्त्व कल्पावें। येर्हवीं अज्ञानारूप नव्हे। अभुकसें म्हणून॥२२६॥

ते सत् म्हणों तरी ज्ञानें नासे। असत् तरी कार्य दिसे।
असो अनिर्वचनीय जें ऐसें। तें कारण शरीर॥२२७॥

देहद्वयाचें उत्पत्तिस्थान। या हेतु म्हणावें कारण।
नाश पावत असे म्हणोन। शरीर बोलिजे॥२२८॥

परी हा देह कल्पूं नये। देह पाहतां असती द्वय।
स्थूळदेह हा बिढार होय। सूक्ष्म व्यवहारात्मक॥२२९॥

एवं स्थूळ सूक्ष्म कारण। जीवासहित हे तीन।
निजरूपीं उपाधी उत्पन्न। जाहली असे॥२३०॥

रविदत्ता तूं म्हणसी ऐसें। जे हे उपाधि जाली असे।
याँत मुख्य निजरूप नसे। तरी अवधारीं॥२३१॥

घट गाडगें जें जें निर्माण। तें तें व्यापून असे गगन।
तैसें स्फुरणादि देहाँत संपूर्ण। व्यापून ब्रह्म असे॥२३२॥

सच्चिदानंद ब्रह्मघन। तेंचि अस्ति भाति प्रिय पूर्ण।
ऐसीं तिन्ही जीं लक्षणें। येथें प्रगट असतीं॥२३३॥

अस्तित्व मायेनें लोपवावें। तरी कासयावरी प्रगटावें।
चिद्रूप आच्छादावें। तरी व्यवहारावें कैसें॥२३४॥

सुखमात्र आच्छादिल्या ऐसें। वाटे परी तेंही आच्छादिलें नसे।
जरी आच्छादिलेंच तरी होतसे। आवडीचें भान केवीं घटीं जेवीं आकाश व्यापलें॥२३५॥

तेवीं पिडीं ब्रह्म पूर्ण दाटलें। जयावरी सर्व हे कल्पिलें।
तें अस्तित्वरूप॥२३६॥

जयाचिया भासा भासती। तोचि आत्मा साक्षी चिन्मूर्ति।
निर्विकारत्वें असंग स्थिती। उपाधिमाजीं असे॥२३७॥

सर्व प्रियता जयासाठीं। तेचि सुखरूपता गोमटी।
एवं तिन्ही लक्षणें उठाउठी। अस्ति भाति प्रियता॥२३८॥

याँत सद्रूप आनंदरूप दोन। याचें पुढें असे विवेचन।
प्रस्तुत आतां चिद्रूप पूर्ण। बोलिजे अल्प रीतीं॥२३९॥

मुळीं अहंब्रह्म जे स्फुरण। विद्याविद्यात्मक शक्ति दोन।
हे जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा जयेसी वासना हें अभिधान॥२४०॥

जयेतें वृत्ति नाम अंतःकरण। हे जयाच्या भासा भासमान।
तो साक्षि बोधरूप आत्मा मन बुद्धि चित्त अहंकरण। आणि तेथें उमटले त्रिगुण।

हे जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा॥२४३॥

श्रोत्र त्वचा चक्षु जिव्हा घ्राण। वाचादि क्रिया आदिकरोन।
हे जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा हस्तपादादि मस्तक संपूर्ण।

गोलकादि नख शिख निर्माण। हे जयाच्या भासा भासमान।
तो साक्षि बोधरूप आत्मा हा इतुका समुदाय उत्पन्न। जितुका जड चंचळ संपूर्ण। हे

 जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा॥२४६॥

इतुकियाँची क्रिया जे जे होणें। आणि पंचविषय तमोगुण।
हे जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा॥२४७॥

विषयाँत स्फुरणापासोन। उत्पत्ति स्थिति लय होणें।
हे जयाच्या भासा भासमान। तो साक्षि बोधरूप आत्मा॥२४८॥

लयही जो सर्वांचा पाहे। ऐसी देखणी दशा आहे।
द्रष्ट्याचे दृष्टीचा नाश नव्हे। कवणेही काळीं॥२४९॥

सामान्यत्वें सर्वां प्रकाशित। उत्पत्ति स्थिति जो भासवित।
आणि लय जाणोनि तिष्ठत। जैसा तैसा॥२५०॥