सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या २५१ ते ३०० / आदि शंकराचार्य
ऐसिया देखणें दशेसी। नाभें तीन ओळखिसी।
जो कां जाणतसे दृश्यासी। तोचि द्रष्टा॥२५१॥
चंचळ भासासि जो जाणे। तया साक्षी नांव हीं वचनें।
जो कां लयसाक्षी पूर्णपणें। त्या नांव ज्ञप्ति॥२५२॥
एवं ती प्रकारें जाणणें एक। तें कधीं नव्हे न्यूनाधिक।
तेंचि चिद्रूप निश्चयात्मक। मुख्य रूपाचें॥२५३॥
मुख्य स्वरूप देहीं व्यापलें। जेवीं घटीं आकाश संचलें।
निर्विकार पूर्ण दाटलें। तया संकेत कूटस्थ॥२५४॥
उपाधींत जो सधन। परि उपाधीहून विलक्षण।
तया प्रत्यगात्मा अभिधान। परब्रह्मासी॥२५५॥
अगा रविदत्ता तो कवण म्हणसी। तरी तूंचि कीं गा निश्चयेंसी।
सामान्यत्वें सर्वां प्रकाशी। सूर्य जेवीं जगा॥२५६॥
आकाशी जैसा सूर्य असे। सहजत्वें सर्वां प्रकाशितसे।
ऊर्ण तंतु तोही भासे। आणि जडरूप भिंतीही॥२५७॥
आंगणे माड्या परवरें। बळदें खोल्या तळघरें।
एकदांचि प्रकाशित सारें। तेवीं कूटस्थ भासवी॥२५८॥
स्थूलरूप जडत्वें भिंती। सूक्ष्मादि तळघरें असती।
हें असो मुख्य जे कां स्फूर्ति। ऊर्णतंतूचे परी॥२५९॥
तेही जयाच्या भासें। मा स्थूळ चंचळ कां न दिसे।
ऐसा आत्मा सर्वत्रीं असे। साक्षी बोधरूप॥२६०॥
सूर्याचा जो दृष्टांत दिधला। येथें अन्यथा भाव ज्यासी कल्पिला।
कीं आत्मा देहाहून दूर असे राहिला। गगनीं जेवीं रवी एवं आत्मा ऐस दूर भावितां॥२६१॥
अति दूषण असे तत्त्वतां। देहादि ठाव जाला रिता।
मग व्यापकत्वा बाध आला॥२६२॥
आणि देहामाजीं जरी नसे। तरी तें साधका प्राप्त कैसें।
येणें श्रुती अनुभवा आला असे। बाध हा थोर॥२६३॥
तस्मात् नसे सूर्या ऐसा। उपमिला असे यथें सहसा।
याचा भाव अनारिसा। बोलिजे तो॥२६४॥
सूर्य जेवीं सामान्य प्रकाशी। तेवीं आत्मा भासवी सर्वांसी।
परी नपवे विकारासी। सूर्यासम आत्मा॥२६५॥
सामान्यामुळें सूर्य घेतला। तरी दूर भाव न जावा कल्पिला।
यास्तव पूर्वीच असे दृष्टांत दिधला॥२६६॥
आकाशापरी आकाश जैसें घटीं व्यापलें। तैसें आत्मसत्व देही संचलें।
परी ते असंगत्वें राहिलें। सर्वां भासऊनी॥२६७॥
उगाचि प्रकाश मात्र सर्वां। लय उत्पत्तीसी करावा।
परी त्या त्या विकाराचा न घ्यावा। भाव किमपी॥२६८॥
तरी विकारासी कोण पावला। कोण पुण्य पापाचा कर्ता जाला।
ऐसा भाव जरी असे बुजला। तरी अवधारावें॥२६९॥
सूर्य प्रतिबिंबाची झळझळ। विशषत्वें भासे केवळ।
तैसा बुद्धीमाजीं जो सफळ। प्रतिबिंबित जीव॥२७०॥
ज्ञाना ऐसा बुद्धींत बिंबला। बोधाभास नाम तयाला।
तो सत्य नव्हे पाहिजे कळला। परी दिसे साचा ऐसा॥२७१॥
चित्रासी रंगाचें वस्त्र केलें। तया वस्त्राभास नाम जालें।
कीं दर्पणीं मुखा ऐसें दिसलें। त्या नांव मुखाभास॥२७२॥
ऐसाचि बुद्धींत प्रतिबिंबत। तो जीव चिदाभास विख्यात।
यावत् बुद्धि तों काल दिसत। वृत्ति अभावीं मरे॥२७३॥
सूर्य प्रकाशीं दर्पण ठेविलें। त्याँत सूर्याचें प्रतिबिंब पडलें।
तें भिंतीवरी विशेष दिसलें। सामान्य आच्छादुनी॥२७४॥
तैसाच बुद्धि आरसियाँत। आत्मा सूर्य प्रतिबिंबित।
तेणें विषयादि स्फुरविली भिंत। आच्छादुनी सामान्या॥२७५॥
हे विशेषत्वें जीवाचें रूप। सामान्य आत्मा तो चिद्रूप।
ययाचें निरूपण साक्षेप। पुढें बहुधा असे॥२७६॥
परी अल्पमात्रें येथें बोलिलें। सामान्य विशेष निवडिलें।
सामान्य तें सदा संचलें। निर्विकारत्वें॥२७७॥
विशेषत्वें जो हा जीव। बोधा ऐसा उमटला भाव।
तोचि एका अभिमानास्तव। कर्ता जाला॥२७८॥
आपण तरी नाहीं जन्मला। उगाचि सताचा आहेपणा घेतला।
आपण आहेसा भाव कल्पिला। आत्मा नाहींसा करोनी आत्मा असता तरी दिसता॥२७९॥
मी दिसें म्हणोन आहें तत्त्वतां। मीच असें की सर्वां देखता।
आत्मा जड न पाहे॥२८०॥
मी आपआपणा असे प्रिय। आत्मा दुःखरूप अप्रिय।
एवं अस्ति भाति प्रिय जो होय। तें आपणा भाविलें॥२८१॥
आपण जो असज्जड दुःखरूप। तो आत्म्यावरी केला आरोप।
ऐसा अन्योन्या ध्यास आपेआप। कल्पिला बळें॥२८२॥
याचि नांवे ग्रंथि पडिली। आत्मरूपता आभासें घेतली।
आपुली अनात्मता घातली। आत्मयावरी॥२८३॥
ऐसा भाव जीवें कल्पिला। परी तो आत्मत्वीं नाहीं स्पर्शला।
आत्मा जैसा तैसाचि संचला। अस्ति भाति प्रियात्मक देखोनि गुंजा पुंज रक्त॥२८४॥
अन्यें भाविला असे जळत। त्या कल्पनेनें भस्म पावत।
काय तो ढोंग॥२८५॥
ऐसा आत्मा सच्चिद्घन। असे तैसा असे पूर्ण।
जेणें भाविला तो जन्म मरण। पावला मात्र॥२८६॥
असो ऐसा जीव असत् असोनी। सत्यत्वचि आपणातें मानी।
देहद्वयाचे अभिमानीं। तादात्म्य पावे॥२८७॥
स्थूलदेह मांसमायाचा। नेणोनि भाव तयाचा।
मीच म्हणोनि मर्जे वाचा। त्याचे धर्मही माथां घे॥२८८॥
मी जन्मलों वाढू लागतों। आहें आणि तरुण होतों।
वृद्धाप्य पावोनी मरतों। पुन्हाँ अन्मेन पुढें॥२८९॥
मी अमुक कुळीं जन्मलो। मी अमुक आश्रमातें पावलों।
मी अमुक मेळवून राहिलों। सुखी वडिलां ऐसा॥२९०॥
तैसेचि इंद्रियाँचे धर्म। आपुले माथां घेतसे परम।
मी बहिरा आंधळा कीं सूक्ष्म। ऐकें आणि देखें॥२९१॥
अजिव्ह की असे रसज्ञ। निर्नासिक कीं सध्राण।
अस्पर्श कीं स्पर्शज्ञ। असे पूर्वकर्मा ऐसा॥२९२॥
मी बोलका चालका दानी। मीच भोगीं बहु कामिनी।
मीच शौच सारीं अनुदिनीं। मजहुनि दुजा नसे॥२९३॥
मजचि क्षुधा तृषा लागे। तेव्हाँ पितों खातों निजांगें।
एवं प्राणाचेही धर्म वेगें। घे अभिमानें माथां॥२९४॥
म्याँ अमुकीया वचन दिधलें। कीं तुज रक्षीन सामर्थ्यें आपुलें।
तरी मीं प्राणांतींही उपेक्षिलें। न जाय तया॥२९५॥
म्याँ घोकिलें ते विसरेना। कधींही आळस मज असेना।
किती रीतीं मज होती कल्पना। तें माझा मीच जाणें॥२९६॥
माझा निश्चय किती जाडा। येर झुडतार कोण बापुडा।
मी आठव करणार केव्हडा। आपुले ठायीं॥२९७॥
एवं देहेंद्रिय प्राण कर्म। अथवा अंतःकरणाचे धर्म।
आपुलेचि माथां घेऊन अधम। बैसला बळें॥२९८॥
जागृतीमाजीं इतुक्याँचा। अभिमान घेतसें मीच साचा।
कर्म धर्म वर्ण आश्रमांचा। कीं व्यापार लौकिकीं॥२९९॥
हा मी आणि हें हें माझें। घेऊन बैसला तें न सांडी ओझें।
हाचि विश्वाभिमानी बुझे। नाम जीवासी॥३००॥