सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या ३०१ ते ३५० / आदि शंकराचार्य
तेवींच स्वप्नीं दृश्यासी। पाहतसे कल्पून मानसीं।
त्याँत आपण एकअसे तयासी। कल्पूनी पाहे ध्यासें॥३०१॥
दृश्य आणि आपणाही कल्पिलें। परि हाचि मी त्या दृढ धरिलें।
हे हे अन्य ते परते वाटले। मज सुख दुःख देती॥३०२॥
एवं स्वप्नांत जो अभिमान धर्तां। तोचि तैजसाभिमानी तत्त्वता।
पुढें झोंपही जरी लागतां। मीपणा न त्यागी॥३०३॥
मी काय बहु वेळ निजेलों। होतों अन्य किमपि न स्मरलों।
सुखदुःखासी न होतों स्पर्शलों। आणि कांहीच नेणें॥३०४॥
कांही विषय इच्छा नाहीं केली। न किंचित्स्वप्न-अवस्था देखिली।
ते जागें जालिया आठवली। परि अनुभविली नेणीव तेथें मीपणा जरी नसतां॥३०६॥
तरी जागृतींत अनुभवा न येता। एवं नेणिवेचा अभिमान धर्ता।
तो प्राज्ञ अभिमानी॥३०६॥
एवं जागृति स्वप्न सुषुप्ति। ऐसिया तिन्ही अवस्थांप्रती।
मीच म्हणोनि दृढ प्रतीति। तया बोधाभासाची॥३०७॥
या तीन अवस्था स्वाभाविक। परी अन्य असती आगांतुक।
तेथेंही मीपणा आवश्यक। उणा नोव्हे॥३०८॥
मुद्रल प्रहारें मूर्च्छा आली। तेंव्हा मज मूढत्वें पडली भुली।
हेही सावधानीं अठवली। परी तेथें मीपण होतें॥३०९॥
तैसेंच मरण जेंव्हा पातलें। तेंही मी मेलों ऐसें भाविलें।
परी अभिमानाचें उणें जालें। नाहीं रोम॥३१०॥
हें असो समाधींत बैसतां। मीपणासि नये उणिवता।
मी सुखी बैसलों सांडून परता। विषय चिंतनादि॥३११॥
ऐसा मीपणा धरिला जेणें। तोच जीव आभास वोळखणें।
असो देहक्रिया जे जे होणें। ते ते म्हणे म्याँ केली॥३१२॥
स्नान संध्या स्वधर्म कर्म। नित्य नैमित्तिक यज्ञ होम।
दान अथवा नित्य नेम। कर्ता मीच पुण्यासी॥३१३॥
शास्त्रीय जें कां न करावें। तें जरी केलें स्वभावें।
तेंचि अभिमानानें माथां घ्यावें। पाप केलें म्हणोनी॥३१४॥
अथवा लोकरीती विषय। जैसा जैसा वर्ते काय।
तें तें माथां घेत जाय। पुण्य पाप म्हणोनी॥३१५॥
विचार पाहतां जीवासी। करणें नाहीं आभासासी।
परी मी कर्ता बुद्धि जरी ऐसी। तरी तें भोगावें लागे॥३१६॥
देह इंद्रिय आणि प्राण। कर्म आणि अंतःकरण।
हें इतुकें मिळतां संपूर्ण। करणें घडे॥३१७॥
देह नसतां प्राण इंद्रिय। चित्तें कर्में करणें ही काय।
इंद्रियाँविण करणें न होय। देहादिही असतां॥३१८॥
प्राणेंविण इंद्रिय देहे। मन कर्म जरी आहे।
तरी कर्म निफजूं न लाहे। शुभ कीं अशुभ॥३१९॥
एकलें अंतःकरण नसतां। देह प्राणादि असतां।
कर्में नुद्भवती तत्त्वतां। तस्मात् कर्ता कोण॥३२०॥
होणें कर्म नाहीं उदेलें। जरी मन इंद्रियादि असलें।
तरी कर्में न घडतील जाणिलें। पाहिजे विचारें॥३२१॥
जीव तरी बुद्धि आंत। मिथ्यात्वें प्रतिभास दिसत।
तेथें करणियाचा संकेत। उपाधिविण केवीं॥३२२॥
एवं सर्व हे भिन्न भिन्न। परी कोठेंचि नाढळें कर्तेपण।
उगेंचि भाविलें न कळून। अभिमानें मी कर्ता॥३२३॥
नेणें देह इंद्रिय प्राण। नेणें कर्म अंतःकरण।
नेणें जीवाचें काय लक्षण। उगाचि सर्वां मी म्हणे॥३२४॥
एवं तया मीपण योगें। अन्याचें कर्म तें म्याँ केलें अंगें।
तया ध्यासेंचि लागेवेगें। मज भोगणें लागे मानी॥३२५॥
पुण्य केलें तेणें मज। पुढें सुख होईल सहज।
पापें घडलीं जीं जीं सहज। तेणें दुःख होय पुढें॥३२६॥
ऐसें जें जें कर्म जालें। तें तें कर्तेपणें दृढ भाविलें।
तितुकें ध्यास अंतरीं बैसलें। हा देह पडिला जरी॥३२७॥
मरणकाळीं ऐशी वासना। दृढ धरून पावे अवसाना।
तयाचि ध्यासें पावें जनना। भलतेहि योनी॥३२८॥
सएवसंसरेत्कर्मवशाल्लोकद्वयेसदा।ऐसा जो चिदाभास जीव।
जेणें मीपणाचा घेतला भाव। तोचि जन्ममरणा पावे स्वयमेव॥३२९॥
अध कीं उर्ध्व लोकीं मीपणध्यासें एक देह सोडी। एक देहा पावे परवडी।
सदां फिरताचि असे आवडी। कर्मफलाची धरोनी॥३३०॥
जेव्हाँ पुण्यकर्माचा उदय। तेव्हाँ स्वर्गस्थ होय स्वयें।
पाप उद्भवतां अधोगती जाय। नाना नीच योनी॥३३१॥
अंतकाळीं जे आठवण। तैसा देह पुढें होणें।
ऐसा कर्मवशें कडून। पुनः पुनः जन्मे मरे॥३३२॥
जन्ममरणा नाम संसृती। हें भ्रमण न चुके कल्पांतीं।
मा असो अधम कीं उत्तम गती। परी भोगी अचुक॥३३३॥
उत्तमामागें अधम। कीं अधमामागें उत्तम।
हा कांहीं न संभवे नेम। कर्मा ऐसें होय॥३३४॥
उत्तमाचा उत्तमची। कीं अधमाचा अधमची।
हा नेम न संभवे कांहीची। परी जन्मे कर्मवंशें॥३३५॥
मनुष्यापासून कीटकांत। वृक्षादि हे अधम समस्त।
तैसाचि मानवापासोन देवांत। उत्तम योनी॥३३६॥
यास्तव मानव देह हा मध्यम। येथें पुण्यपाप असे सम।
या तळीं हे सर्व अधम। उत्तम ते ऊर्ध्व॥३३७॥
देव गंधर्व यक्ष स्वर्गावासी। तेथून जरी सत्यलोकवासी।
हे उत्तम गति असे जीवासी। परी संसृति न चुके॥३३८॥
सलोकता समीपता। तिसरी ते मुक्ति स्वरूपता।
चौथी सगुण ही सायुज्यता। परी भ्रमणें न चुके॥३३९॥
सायुज्याँत जे उर्ध्व गती। तयाही म्हणावी संसृती।
मा अधमत्वें जे मरती जन्मती। तेथें बोलणें नको॥३४०॥
जोंवरी अज्ञान न फिटे। जंव स्वरूपज्ञान नव्हे गोमटें।
तोंवरी संसृति न पालटे। जन्ममरणरूप॥३४१॥
जन्मता साकार प्रगटावा। मरता वासनेंत गुप्त असावा।
ऐसा लोकद्वयी हा फिरावा। सदां जीव॥३४२॥
देह प्रगटता सत्रा प्रकार। प्रगटती करिती व्यवहार।
तेथेंही स्वप्न किंवा जागर। फिरे या लोकद्वयीं।॥३४३॥
मग असो देव कीं मानव। अथवा कीटक गो अश्र्व।
परी स्वप्न जागरीं दोन्ही ठाव। असे भ्रमणें॥३४४॥
जन्ममरण हे संसृती। कीं फिरणें स्वप्नीं जागृती।
एवं भ्रमणें जें जीवाप्रती। चुके ना कीं॥३४५॥
अथवा संसृति हा संसार। म्हणजे देहद्वयाचा व्यापार।
केव्हाँ स्वप्नं केव्हाँ जागर। या लोकद्वयीं संचरे॥३४६॥
तया व्यापाराचे पांच प्रकार। होत असती सविस्तर।
त्याँत एकेक व्यापारीं साचार। पांच पांच तत्त्वें॥३४७॥
तेचि व्यापार कैसे कैसे। बोलिजेत असती अल्पसे।
मुमुक्षें अवधारितां मानसें। विवेचन घडे॥३४८॥
पूर्वी अपंचिकृत उद्भावलीं। तेचि तत्त्वें पंचीकृत जालीं।
एकेकांत पांच पांच राहिलीं। पुढें प्रवेशलीं देहीं॥३४९॥
व्यापार जेधवां होत। तेव्हाँ येकेकांतून एकेक निघत।
पांचाचे पांच जेंव्हाँ मिळत। तेव्हाँ व्यापार एक होय॥३५०॥