भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सार्थ लघुवाक्यवृत्ती / ओव्या ३५१ ते ४०० / आदि शंकराचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गगन तत्त्वाचा व्यापार होणें। मुख्य आकाशाचें अंतःकरण।
वायूंतून निघे ध्यान। तेजांतून श्रोत्र॥३५१॥

वाचा आपाचें कर्मेंद्रिय। पृथ्वीचा शब्द विषय।
या पांचातत्त्वें व्यापारद्वय। होय ऐकणें बोलणें॥३५२॥

ऐकणे श्रोत्र ज्ञानेंद्रियाचें। बोलणें वाचा कर्मेंद्रियाचें।
दोहींसी काज शब्दाचें। असे व्यापारा॥३५३॥

दोहींशी आधार चळणासी। ध्यान वायु निश्चयेंसी।
जाण तें तत्त्व निवडावयासी। अंतःकरण॥३५४॥

आतां वायुतत्त्वाचा व्यापार होता। गगनांतून मन निघे तत्त्वतां।
 समान वायु हा आपण स्वतां। त्वचा तेजाची॥३५५॥

आपाचें पाणी कर्मेंन्द्रिय। पृथ्वीचा स्पर्श हा विषय।
एवं पांच मिळतां व्यापारद्वय। स्पर्श देणें घेणें॥३५६॥

त्वचा ज्ञानेंद्रियाचें स्पर्शणें। पाणी कर्मेंन्द्रियाचें देणें घेणें।
समान वायूचें चळण होणें। मन जाणतें तत्त्व॥३५७॥

ज्ञानेंद्रियद्वारा जाणावें। कर्मेन्द्रियद्वारा करावें।
दोहींचा स्पर्श विषय व्हावे। व्यापार दोन॥३५८॥

होतां तेजतत्त्वाचा व्यापार। बुद्धि आकाशाची साचार।
उदान वायूंतून अपार। स्वये तेजाचा चक्षु॥३५९॥

आपांतून घेतला पाद। पृथ्वींतून रूप विशद।
हे पांच मिळून व्यापारभेद। पहाणें चालणें दोन॥३६०॥

चक्षुज्ञानेंद्रियें पाहणें। पादकर्मेन्द्रियें चालणें।
दोहींचा विषय रूप होणें। भोग्यरूप॥३६१॥

उदान वायु चळणा आधार। जाणतें तत्त्व बुद्धि सुंदर।
एवं हा जाला विस्तार। तेज तत्त्वाचा॥३६२॥

आपतत्त्वाचा व्यापार होत। आकाशांतून घेतसे चित्त।
प्राणवायूंतून निघत। जिव्हा तेजाची॥३६३॥

आपाचें उपस्थ सुरस। पृथ्वींतून विषय रस।
हे पांच मिळून होती बहुवस। अशनरती॥३६४॥

जिव्हा ज्ञानेंद्रियें रस घेणें। उपस्थकर्मेन्द्रियें भोगणें।
दोहींचा विषय रस होणें। ग्रहणरूप॥३६५॥

दोहींस आधार चळणा प्राण। जाणावया चित्त संपन्न।
एवं व्यापार पांचांचे होती दोन। आपतत्त्वाचे॥३६६॥

पृथ्वीतत्त्वाचा व्यापार। आकाशाचा अहंकार।
अपानवायूचा निर्धार। तेजाचें घ्राण॥३६७॥

गुद तें आपांतून निघालें। गंधासी पृथ्वींतून काढिलें।
या पांचांयोगें व्यापार जाले। गंधग्रहण विसर्ग॥३६८॥

घ्राणज्ञानेंद्रियें गंधग्रहण। गुदकर्मेन्द्रियें विसर्ग करणें।
मुख्य विषय दोहींचा होणें। गंध हा भोग्य॥३६९॥

दोहींसी आधार चळणा अपान। जाणतें तत्त्व अहंकरण।
एवं व्यापार जे होती दोन। पृथ्वीतत्त्वाचे॥३७०॥

ऐसे हे पांच तत्त्वांचे। व्यापार होती पांचांचे।
या पांचांत अधिष्ठान त्रिगुणांचें। तिहीं शक्तिरूपें॥३७१॥

अंतःकरण पंचक सत्त्वगुण। हे ज्ञानशक्ति संपूर्ण।
बरें कीं वाईट निवडणें। यास्तव भोक्ता॥३७२॥

ज्ञानेंद्रियें सत्त्वगुण असतां। परी हे निर्गम द्वार तत्त्वता।
म्हणोनि यासी क्रियारूपता। साधन भोक्त्स्याचे॥३७३॥

तस्मात् ज्ञानेंद्रियपंचक। दुजें कर्मेन्द्रिय क्रियारूपक।
प्राणपंचक मिळोनि एक। क्रियाशक्ति बोलिजे॥३७४॥

एवं त्रिपंचकें रजोगुण। हें क्रियाशक्तीचें लक्षण।
भोग्या घ्यावयाचीं साधनें। उपकरणें भौक्तियाचीं॥३७५॥

पंच विषय तमोगुण। हे द्रव्यशक्ति भोग्य संपूर्ण।
एवं त्रिपुटीनें होय ग्रहण। सुखदुःख जीवा॥३७६॥

जयाविषयीं नुसता शब्द। तो श्रोत्रद्वारा होय वेद्य।
जेथें शब्द स्पर्श द्विविध। तें वेद्य श्रोत्रत्त्वाचे॥३७७॥

जेथें शब्द स्पर्श रूप तीन। तें श्रोत्रत्वचा चक्षुसि ग्रहण।
शब्द स्पर्श रूप रस चतुर्गण। तें श्रोत्र त्वचा चक्षु जिव्हेसी शब्द स्पर्श रूप रस॥३७८॥

जेथें गंधादि पांच सुरस। तें श्रोत्र त्वक्चक्षू जिव्हा घ्राणास।
विषय वेद्य होय॥३७९॥

एवं भोग्य तमोगुणद्रव्यशक्ति। त्रिपंचकें रजक्रियाशक्ति।
अंतःकरण सत्त्वज्ञानशक्ति। हे भाग्य भोगणें भोक्ता॥३८०॥

प्रत्यक्ष विषय स्थूलासी। भोग जो घडे निश्चयेंसी।
हे जागृति अवस्था जीवासी। घडे साभिमानें॥३८१॥

विषय इंद्रियाँवांचून। कल्पनेनें विषय कल्पून।
सुख दुःख भोगी अभिमान। ते स्वप्नअवस्था॥३८२॥

एवं जागृति स्वप्न स्थानीं दोही। जीव संचरे दों लोकीं पाही।
सुषुप्तींत मात्र संचार नाहीं। परी नेणिवेंत गुप्त॥३८३॥

ऐसा एक देह पावत असतां। तों काल देहद्वयीं संचरतां।
प्राणवियोगें मृत्यु पावतां। उत्तमाधमयोनीं॥३८४॥

ह्या लोकद्वयीं संचरे जीव। अनंत कर्मफल भोगास्तव।
हें भ्रमण चुके ऐसा उपाव। त्रिभुवनीं नाहीं॥३८५॥

जैसा प्रावाहीं कीटक पडे। तया आवर्तीहून आवर्ती जाणें पडे।
विसावा क्षणभरी आतुडे। ऐसा काळ नाहीं॥३८६॥

तैसा एक देह जरी त्यागावा। तों दुजा तेव्हाँच अवलंबावा।
तोही क्षय पावतां धरावा। तिजा उत्तम कीं अधम जेधवां अज्ञानें भिन्न पडिला जीव हा मी मानून बैसला॥३८७॥

तेव्हाँपासून प्रवाहीं सांपडला। जन्ममृत्यूच्या॥३८८॥

निमिष्य एक विसावा घेतां। सुखा मागें दुःख होय भोक्ता।
कीं दुःखा मागें सुख मागुता। भ्रमें कीटकापरी॥३८९॥

दैवें जरी किडा नदीतीरा। येतां कोणी देखिला नेत्रा।
 तेणें काढिला वोढून त्वरां। दयाळूपणें जरी॥३९०॥

तरी तो वृक्षछाये तळवटीं। कीटक विश्रामे उठाउठी।
ऐसीच सद्गुरूची होय भेटी। तया जीवासी जरी॥३९१॥

परी तो हृदयशुद्धीचे कडे। आला पाहिजे कोडें।
त्याचेंचि बोधद्वारा सांकडें। फेडिती गुरु॥३९२॥

जन्ममृत्यूच्या प्रवाहाँतून। काढिती तया बोधून ज्ञान।
सुखें विश्रामें स्वरूपाभिन्न। कीं पुन्हाँ सुखदुःखा नातळे येर्ह२वी गुरुराज न भेटतां॥३९३॥

अभिन्न ज्ञान न होतां। अन्य कोटि साधनें करितां।
हा प्रवाह न निमे॥३९४॥

रविदत्ता हें सत्य वचन। कदां नोव्हे अप्रमाण।
ऐसी गुरुवाणी ऐकोन। येरू साष्टांग घाली॥३९५॥

वारंवार प्रदक्षिणा। वारंवार वंदी चरणा।
कंठ दाटला अश्रुनयना। फुटेना शब्द॥३९६॥

तैसाच गद्रद वाणी करून। त्राहि त्राहि बोले वचन।
सोडवीं सोडवीं भवापासून। अन्य मी प्रार्थूं नेणें॥३९७॥

जय गुरु जय जय गुरु। कृपाघन करुणासागरु।
भज दीनाचा करी अंगीकारु। न करीं उपेक्षा॥३९८॥

मी काया वाचा मनेंसी। शरण शरण श्रीचरणसी।
दयाळा संरक्षून ब्रीदासी। उचित तें करा॥३९९॥

मागुतीं करून साष्टांग। चरणीं पडला दृढ अभंग।
मग शंकरें उठवून लगबग। गाढ आलिंगिला॥४००॥