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सावन-संध्या / मोहन अम्बर

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यह सावन की सांझ आज तो आँख भिगो रही है,
भारी मन से गाना पड़ता संध्या हो रही है।
डूबा दिन दुहराता है सामंती युग-सी भूल,
हल्दी से कुंकुम कंुकुम से काजल होती धूल,

संुदरता की निरख परख करवाने रवि राजा से,
किरण कुटनियाँ गुलमुहरों के मुखड़े धो रही है,
भारी मन से गाना पड़ता संध्या हो रही है।
जड़-भक्तों से पंक्ति बद्ध हैं पेड़ प्रार्थना लीन,
नभ-मन्दिर में राम, लखन, सीता से बादल तीन,

एक पहाड़ पुजारी जैसा ताक रहा है जिसको,
वही हवा तुलसी के छंदों में मन खो रही है,
भारी मन से गाना पड़ता संध्या हो रही है।
पश्चिम का नभ देख दृष्टि को होता आज फरेब,
जैसे पत्थर बन बैठा हो किसी गाँव का देव,

धूप किसी बंध्या-सी जिस पर सेंदुर बरक चढ़ाकर,
अपना दूध हीन आंचल फैलाकर रो रही है,
भारी मन से गाना पड़ता संध्या हो रही है।
क्षितिज थाल में नखत-दिया ले खड़ी कुरूपा मौन,

चांद सरीखा साजन उसको दे इस युग में कौन,
जबकि धरा उसकी विधवा माँ बूढ़ी और गरीबिन,
किसी पहाड़िन जैसी तम का बोझा ढो रही है,
भारी मन से गाना पड़ता संध्या हो रही है।