मानसूनी हवाओं की प्रेम अग्नि से
कतरा-कतरा पिघल रहा है आकाश
सावन वह स्याही है
आकाश जिससे लिखता है
धरती को प्रेम पत्र
मेरे असंख्य पत्र जमा है
तुम्हारी स्मृतियों के पिटारे में
शालिक पंक्षी का एक जोड़ा डाकिया बन
जिसे हर रोज
छत की मुंडेर पर तुम्हे सौंपता है
जिसे पढ़ न लो गर
तुम दिन भर रहती हो उदास
तुम्हारी आँखें निहारती रहती है आकाश
ओ सावन!
तुम इस बार लिख दो न
धरती के सीने पर असंख्य प्रेम पत्र
हर लो
अपने प्रियजनों के चेहरे पर फैली गहरी उदासी
ओ सावन!
कुछ ऐसे बरसो
कि किसी पेड़ से न टंगा मिले कोई किसान।