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सावन की रात में गर स्मरण तुम आये/ काजी नज़रुल इस्लाम
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सावन की रात में गर स्मरण तुम आये
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे
भूल जाना स्मृति मम
निशीथ स्वपन सम
आँचल में गुंथी माला
फेंक देना पथ पर
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे
झरेंगे पुर्वायु, गहन दूर वन में
अकेले देखते रह जाओगे तुम
इस वातायन में
विरही कुहु केका गायेंगे नीप शाखाओं पर
यमुना नदी के पार सुनोगे कोई पुकारे
बिजली दीपशिखा ढूँढेंगे तुम्हे पिया
दोनों हाथों को ढकलेना आँखों को ज़रा
गर आंसूं से नयन भरे
बाहर तूफान बहे नयनों से बारि झरे
मूल बंगला से अनुवाद : अनामिका घटक