सावन की साँझ / नरेन्द्र शर्मा
सान्ध्य गगन की छाया जल पर फैली हलकी हलकी,
बीते की चित्रित सुधि ज्यों मेरे मानस में झलकी!
यह पावस की साँझ, गगन नारंगी, भू हरियाली—
ऐसे में क्यों मुझे याद आयेगी बीते कल की!
लहराती है भरी झील, पर भर न आय मम अन्तर,
लघु लहरों में कहीं न फिर से जाग उठे मन पल भर!
पर क्या इस सूनेपन में तट के तरु-सा सो जाऊँ?
एकाकीपन से डर, जड़ता को लूँ यों कैसे वर!
कैसी ओछी बात! आज भी, मन, तू सुखदुख-कातर,
सुख-दुख की परिभाषा ही जब बदल रही घर-बाहर!
माना, संध्या के रंगों में लिखी हुई है गाथा,
पर मलीन रंगों में फिर रवि रंग भरेगा आकर!
देश-काल दिनमान, अस्तमित रवि प्रतीक बन युग का—
सूर्य कनक का मोती, जिसको समय-हंस नित चुगता!
दिनमणि डूबा, डूबे दिन-सा डूब रहा है युग भी—
मनुज बीज, जो विकसित युग युग, डूब डूब फिर उगता!
सान्ध्य गगन की छाया भी छिप गई, तारिका झलकी—
फिर वह भी छिप गई, जलद-पट में ज्यों शफरी जल की!
तिमिराच्छन्न मेघमय यम-से भीम गगन के भीतर
भावी की स्मित चितवन-सी, मुसकान-दामिनी छलकी!