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सावन के झूले / शैलेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
यादों में शेष रहे
सावन के झूले
गाँव-गाँव
फैल गई
शहरों की धूल
छुईमुई
पुरवा पर
हँसते बबूल
रह-रहके
सूरज
तरेरता है आँखें
बाहों में
भरने को
दौड़ते बगूले
मक्का के
खेत पर
सूने मचान
उच्छ्वासें
लेते हैं
पियराये धान
सूनी पगडण्डी
सूने हैं बाग
कोयल -पपीहे के
कण्ठ
गीत भूले
मुखिया का बेटा
लिए
चार शोहदे
क्या पता
कब-कहाँ
फसाद
कोई बो दे
डरती
आशंका से
झूले की पेंग
कहो भला
कब-कैसे
अम्बर को छू ले