भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सावन रोॅ लीला / कस्तूरी झा 'कोकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

की सोची केॅ साले-साल
सावन आबै छै।
की जंगल में मंगल होय जाय
मोर नाचबै छै।
की गोरी केॅ मृदुल हथेली
मेंहदी फूल भरै छै।
साजन देखी केॅ हरसै छै,
स्वर्ग यहीं उतरै छै।
की गोरी के लाल महावर
कदम्ब डाल में झूला।
पेंग लगाय, लेॅ जाय आकाश में
बालम सबकुछ भूला।
की वियोगिनी केॅ तरसाबै
पनघट देखै रास।
परदेशी केॅ कटै कलेजा,
काटै तेज गड़ास।
की रोपनीं केॅ गीत सुनै लेॅ
रही-रही बरसै छै।
की बरसी केॅ जोर-जोर सें
लानी दै छै बाढ़।
की रुसी केॅ बैठी जाय छै,
होय छै महा सुखाड़।
ई रंग बैताल कैहिनें होय छै?
वरूण देव संे बोलऽ।
नैं तेॅ काम बिगड़थौं अपनें
मुँह तेॅ आपनों खोलऽ।