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सावन / रूपम झा
Kavita Kosh से
बरस गए हैं घन सभी, रिक्त हुआ आकाश।
बैठा मेरे सामने, मेरी तरह उदास।।
चलता था दिन आग-सा, धरती थी बेचैन।
बादल लेकर आ गया, धरती का सुख चैन।।
जल निचोड़ कर दे दिया, धरती को आकाश।
पर साबुन से क्या बुझे, अंतर मन की प्यास।।
है अबकी बरसात की, कितनी काली रात।
वही बताएगा तुम्हें, सोया जो फुटपाथ।
सावन आकर दे गया, नदियों को उपहार।
इठलाती है आज यह, चांदी सी जलधार।।
बादल नदियों से हुआ, मिलकर एकाकार।
होकर अपनी जिंदगी, और निभाया प्यार।।
हिना रचाकर रूपसी, जता रही है प्रीत।
गूंज उठा हर ओर से, मधुश्रावणी गीत।।
झरी सावनी देखकर, चिड़िया है हैरान।
ऐसे में कैसे भला, लूँ मैं नई उड़ान।।